बड़े दिनों बाद दो दिन पहले गंगा घाट पर अडीयाने का मौका मिला,कुछ पुराने अक्खरियों के साथ। पुराने सहपाठी साथी सुशील जी जो आजकल एक विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं बनारस पधारे थे । शुरू हुआ बतकुच्चन का दौर। चाय वाला भी पूरे रँव में था । बोला, का गुरु लोग कहाँ रहला लोग, एतना दिन बाद शकल देखावत बाड़ा जा ।
का देईं ,लीकर या उजरकी । साथ में खड़े पांडे जी बोल उठे उजरकी करियाई दोनों एक्के में मिला के दा। चाय वाला भी अपने ज़माने क अक्खड़ समाज वादी ठहरल, कहा उप्पर से मलइयो मार देईं । तब तक सुशील जी चिल्लाये धूम्र दंडिका भी लियावा। चाय वाले साथी फिर शुरू वाह गुरु दिल्ली वाला हो गैला त शवेत हटा देहला। इ लइकवा कुल बड़का शहरी बन जालन त इहे होला इ स शब्दवे खाए लागैलन । मैं बड़ी हिम्मत जुटा कर बोला जैसे, मेरी भी लगभग क्लास लग गयी ,तू अंग्रेजी वाला हुवा न तोही लोगन त ढेर नाश कैले बड़ा जा।
कहना शुरू, एगो हमार लिका बा विश्वनाथ मंदिर के वी टी कहला ,एगो कम्पूटर किनले हाउ ओके लेपि लेपि चिल्ला ला त छोटका कुकुरा जो पल्ले हई ,उ आ जाला ,ओकर कौन दोष बेचारे क । जैस लाल चाउर वैस दत निपोर गहकी।