साल था 1949 यूनाइटेड नेशन्स में एक बैठक में “स्टेट ऑफ़ इजराइल” के लिए वोटिंग चल रही थी और भारत ने इजराइल को देश बनाने के खिलाफ वोट किया और इजराइल के अस्तित्व को मानने से इंकार कर दिया था।
महात्मा गांधी ने फिलिस्तीन के सवाल पर कहा था कि
2014 में ब्रिक्स के पाँचों देशो ने फिलिस्तीन पर इजराइल के हमले की निंदा थी जिसका सदस्य भारत भी है । और 2014 में ही ब्रिक्स को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा था कि अफगानिस्तान से लेकर अफ्रीका तक अस्थिरता का माहौल है चुप रहने से स्थिति और गंभीर हो सकती हैं फिर और वही हुआ स्थितियां गंभीर हुई ।
इजराइल ने हमास के विरोध की सजा वहां के बेगुनाह लोगों को देनी शुरू कर दी और स्कूलों , अस्पतालों पर भी बम गिराये जाने लगे और सैकड़ों बेगुनाह लोग और बच्चे मारे गए । मानवीय संवेदनाये धरातल में चली गयी और विश्व मानव अधिकार संगठन मुँह देखता रहा और भारत जो की फिलिस्तीन का एक मित्र देश रहा है वो भी सदन में चर्चा से बचता रहा ।
शायद इसका एक कारण ये भी हो सकता है कि भारत का इजराइल और फिलिस्तीन दोनों से ही अच्छे राजनयिक सम्बन्ध हैं और किसी भी प्रकार की टिपण्णी से मतभेद पैदा हो सकते हैं लेकिन अगर कहीं भी मानवता खतरे में है तो भारत जैसे सेक्युलर देश को उसकी निंदा ज़रूर करनी चाहिए जैसे भारत ने अमेरिका द्वारा ईराक पर हमले को लेकर अमेरिका की निंदा की थी लेकिन उससे भारत और अमेरिका रिश्ते ख़राब नहीं हुए ।
हाँ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की 2017 की इजराइल यात्रा पूर्ण रूप से हो सकता है की व्यावसायिक रही हो क्योंकि अमेरिका के बाद भारत सबसे ज्यादा सैनिक हथियार और मशीनरी इजराइल से ही खरीदता है और भारत और इजराइल के बीच द्विपक्षीय व्यावसायिक सम्बन्ध 1992 से ही हैं लेकिन भारत के किसी प्रधानमंत्री ने इजराइल की यात्रा नहीं की इसके पीछे क्या कारण रहे होंगे ये तो नहीं पता। लेकिन कम से कम प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इजराइल के मंच से शांति बहाल करने की अपील की जा सकती थी जो की एक प्रभावी नेतृत्व की मिसाल पेश करता क्योंकि प्रधानमंत्री ने ही 2014 में ब्रिक्स को संबोधित करते हुए इजराइल-फिलिस्तान विवाद पर चिन्ता जताई थी लेकिन चलिये बहरहाल ऐसा हुआ नहीं अब थोड़ा मैं आपको इजराइल और फिलिस्तान के इतिहास में ले चलता हूँ ।
बात 19वी शताब्दी की है जब यहूदियों पर पूरे यूरोप में अत्याचार किया जा रहा था तो उस समय यहूदियों ने एक मुहीम चलायी थी वो मुहीम वापस अपनी पुरानी धरती पर लौटने का जहाँ उनका अपना देश हो और यहूदी फिलिस्तीन की तरफ चल दिए और फिर शुरू हुई कहानी अंग्रेजी शासन के भूमिका की और यही शुरुवात थी दोनों देशो के झग़डे की ,अंग्रजों ने बैल्फोर्ड डिक्लेरेशन के तहत ये तय किया कि अंग्रेज प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यहूदियों को फिलिस्तीन में बसायेंगे, दूसरी तरफ साईस-पिको एग्रीमेंट के तहत अंग्रेजो ने गुप्त तरीके से फिलिस्तीन को अपने कब्जे में रखा और तीसरी तरफ अरब देशों को झांसा देकर कहा गया कि फिलिस्तीन उनको दे दिया जायेगा अगर अरब देश खिलाफत का विरोध करेंगे तो। फिर प्रथम विश्वयुद्ध के बाद बैलफोर्ड डिक्लेरेशन के तहत यहूदी भारी मात्रा में फिलिस्तीन पलायन करने लगे ।
और यहूदियों ने गरीब फिलिस्तीनी अरब लोगों से उनकी छोटी -छोटी ज़मीने खरीदने लगे और समूह बना कर तारबंदी करके एन्क्लेव बनाना शुरू कर दिया और उस एन्क्लेव के बीच में जो गरीब फिलीस्तीनी थे उनको मार कर भगा देते थे और धीरे -धीरे कब्ज़ा और मज़बूत होता गया । अब आप सोच सकते हैं कि आपने फिलिस्तीन के वास्तविक अस्तित्व को समाप्त करके ये कहा कि अब ये मेरा देश है जबकि आपके बुरे हालात में फिलिस्तीनियों ने आपको बिना विरोध किये ज़मीने दी और आपने उसे विश्व के नक़्शे से ही मिटाने का काम शुरू कर दिया और खुद को एक देश के रूप में थोप दिया ।
मैं इजराइल और भारत के संबंधों को पूर्ण रूप से व्यावसायिक नज़रिये से देखता हूँ लेकिन फिर भी मुझे 1936 याद आता है कि भारत ने स्वतंत्र फिलिस्तीन के लिए पूरे देश में फिलिस्तीन दिवस मनाया था और अब सदन में चर्चा तक नहीं होती ।
वसुधैव कुटुंबकम की बात करने वाले देश के नेताओं से मेरा अनुरोध है कि हमे इस देश के मूल सिद्धान्तों से नहीं हटना चाहिये । और कम से कम इजराइल से शांति बहाल करने की अपील की जानी चाहिए।