Headline

All around the world, thousands of markets have millions of tents, and an Arabic tent still lists at the top position and astonishing part of Arabic tents.

Taaza Tadka

कड़वा सच: स्वतंत्रता बनाम सुरक्षा एवं ठगी सप्तम वेतन मार्गदर्शिता

लाखों की मोटी तनखाह पाने वाले सिर्फ मार्गदर्शित हो सकते है मार्गदर्शन इनकी हैसियत से बाहर की चीज़ है| विचार और मार्गदर्शन अट्टालिकाओं और नोटों की गद्दियों

भोगी का अर्थ अगर गलत न लगाया जय तो हर जीव भोगी है |यह भी सच है की जहाँ भोग है वहीं रोग है | निरोगी काया के लिए विदेह बनाना पड़ेगा जो लोकजन के लिए असंभव है| भारत विभिन्नताओ की माटी है |

हमारी संस्कृतियाँ और हमारी परम्परायें सदियों से सशक्त सहचरी के रूप में हमें मार्गदर्शित करती रही है | भोजन मनुष्य की प्रथम आवश्यकता है और कृषि उस आवश्यकता को पूर्ति करने का एकलौता माधयम| किशन हमारा पेट भरता है, अन्नदाता है,जिसके एहसानिओ की पूर्ति ,उसके मेहनत की भरपाई कुछ भी देकर संभव नहीं है |

एक किसान “उत्तम खेती मद्धम बन, निषिद्ध चाकरी भूख निदान “ जैसे लोकोपतियो से अपना जीवन यापन बड़े मिजाज और फक्र से कर लेता था | आज हम ऐसी व्यवस्था में पहुंच चुके है जहाँ घटिया कही जाने वाली समाज में निषिद्ध को प्राप्त चाकरी आज सातवे आसमान पर है | तो बातें होनी लाजमी है और होगी | स्वतंत्रता और सुरक्षा दो अलग भाव है| स्वतंत्रता सुरक्षा नहीं तलाशती और सुरक्षित सवतंर हो यह असंभव जैसा है |

आजादी के पूर्व का संघर्षो की नींव पर खड़ा भारत असुरक्षित होते हुए भी स्वतंत्रता तलाशता था और राष्ट्रीय स्टार पर गुलाम रहते हुए भी निजी स्टार पर अपनी आवश्यकतओ की पूर्ति करता था, और स्वतंत्रता की अनुभूति में था |जहाँ जहाँ भी इस स्वतंत्रता में रुकावट की कोशिशे हुई वह चम्पारण हुआ तो कही डंडी| और आज आजादी के सत्तर साल बाद भी देश को किस मॉडल में निरंतर झोका जाना जारी है कि हम स्वतंत्र होते हुए भी सुरक्षा तलाश रहे है |

ये बढ़ते वेतनमान सुरक्षित जीवन तलाशते इन्ही पगडंडियों की मंज़िल हैं| लगातार बढ़ते वेतनमान अतिगामी हो चुके हैं| समाज कि छोड़िये जनाब ये परिवार में विभेद पैदा कर चुके हैं| जाहिर सी बात है जीवन के संघर्षो में हर कोई अम्बानी और टाटा हो जय यह संभव नहीं है | और छोटे व्यवसायियों के हौसले इन वेतनमानों के आगे इस कदर पास्ट होने लगे हैं कि वे अपने व्यवसायों से विश्वाश उठाये लगे हैं|

अखबारों में इस तरह की घटनाएँ अब आम हो गयी हैं कि नौकरी की लालच में बेटे ने बाप की  हत्या की | कभी नौकरी संधर्ष थी और व्यवसाय या कृषि स्वतंत्रता आज नौकरी आर्थिक सुरक्षा दे रही है जिसे हम स्वतंत्रता मानने की कोशिश भी कर रहे हैं| देश में सरकारी नौकरियों का प्रतिशत अर्ध दहाई में है | बाकी ठगे हुए महसूस कर रहे हैं|

कुछ विभागों को यदि अलग कर हम बात करें तो निजी क्षेत्रों की  सेवाएं ही अधिक बेहतर मानी जाती हैं|लेकिन निजी क्षेत्र के कर्मियों के हालात की बदतरी को भी कोई भी सरकार संज्ञान में नहीं लेना चाहती | शिक्षा और स्वास्थ्य सबसे कमाऊ महकमे हैं| सरकारी शिक्षा की घटती गुणवत्ता ने निजी शिक्षण सिस्थानो को जन्म दिया | सरकारी शिक्षण संस्था खासकर उच्च शिक्षा के लिए उनकी काम संख्या में होना भी उनके पुष्पित पल्लिवत होने का एक बड़ा कारण है|

व्यक्तिगत तौर पर दीवाल में एक कील ठोकने की हैसियत न रखने वाले आज चाँद दिनों में निजी शिक्षा कर्मियों की मेहनत के भरोसे  धनपशुओ की कतार में आ गए हैं| शिक्षकों के वे अन्नदाता है , लेकिन प्रेमचंद के अन्नदाता जो अपनी ही दीवारों की ईटों को चमकते नहीं देख सकते |ये निजी शिक्षक सही मायने में धन और धर्म दोनों से जाता हैं| समाज शिक्षक रूप में स्वीकार नहीं करता और धन निर्धन से बेहतर नहीं होने देता |

ऐसे कुकुरमुत्ते की तरह उगते संस्थान और गिरगिट की तरह रंग बदलते अर्थ पहलवान किसी भी गली चौराहे पर दहाड़े मरते देखे जा सकते हैं| वहीं यदि हम स्वास्थ्य की बात करें तो निजी अस्पतालों में अधिकतर जीवन यापन के संघर्षो से दो चार हो रहे हैं दिलचस्प बात यह कि एक जीवन संवारता है तो दूसरा बचाता है |

देना ही है तो खाद पानी का पैसा देने में लाचार आँख में पहुंच रही पसीने की धार को पोछते किसान को भी एक आयोग दे दो साहब| सड़क पर धूल फांकती चार टमाटर और बैगन अपने पल्लू से पोछ पोछकर बेचतीं और उसमे जीवन तलाशती एक लाचार विधवा माँ को भी एक वेतन आयोग दे दो साहब|

अपने घर में झाड़ू पोछा कर चमकाने वालो चंपा को और सुबह से शाम तक निजी मालनुमा संस्थान में बकर बकर कर करेजा फाड़ने वाले शुकला जी के बेटे को भी इससे जोड़ लो साहब |

हो सके तो बनारस के सोनारपुरा, गुरुधाम और चेतगंज की मजबूर मंडियों की भी एक तस्वीर अपनी जेब से रख लो साहब| और आपको अगर बदहज़मी हुई थी तो प्राइवेट अस्पताल की दौड़ती हुई आयी रानी की तरह नौकरानी नाश बिटिया को जो जलजोग का थैला घोप कर आपकी जान बचायी थी उसे क्यों छोड़ रहे हो उसको भी अपना लो साहब|

सनद रहे कि लाखों की मोटी तनखाह पाने वाले सिर्फ मार्गदर्शित हो सकते है मार्गदर्शन इनकी हैसियत से बाहर की चीज़ है| विचार और मार्गदर्शन अट्टालिकाओं और नोटों की गद्दियों से नहीं झोपड़ियों से ही बीजांकुरित होंगे क्योंकि बीजांकुरण भिठ्टी से होते है,टाइल्स से नहीं |

ये लखटकिया व्यवस्था प्रेमचंद , शरदचंद , निराला , नागार्जुन,सुश्रुत ,चरक तो क्या टी के लहरी भी नहीं पैदा कर सकती | हो सके तो इन फकीरों के पोषण को भी धयान में रख लें क्यों कि राष्ट्र विचारों से चलते है विकारों से नहीं |

“वार्ना चले तो हम भी थे काफिले के संग, फर्क बस इतना है , वे मकां बनाने में लग गए , हम जहाँ बनाने में रह गये”
लेकिन मलाल नहीं |