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जिन्ना को दिखाया ठेंगा, भारत में रहकर ब्रिगेडियर उस्मान ने पाकिस्तान को चटाई धूल

भारत को 1947 में आजादी तो मिल रही थी, लेकिन इसका बंटवारा भी हो रहा था। भारत और पाकिस्तान के बीच हर चीज बंट रही थी। विभाग भी बंट रहे थे। सेना की रेजीमेंट भी बंट रही थी। बलूचिस्तान पाकिस्तान में शामिल हो गया था। ऐसे में यहां की बलूची रेजिमेंट भी पाकिस्तानी सेना में चली गई थी।बलूची रेजिमेंट में ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान भी शामिल थे।

 उन पर बंटवारे के कारण दबाव बढ़ गया था। दबाव लड़ाई को लेकर नहीं था, बल्कि उनके मुस्लिम होने की वजह से था। सेना में उस वक्त मुस्लिमों की संख्या बहुत कम थी। मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमान होने के नाते मोहम्मद उस्मान को पाकिस्तान ले जाना चाह रहे थे।

प्रलोभन भी डिगा न सका

मोहम्मद उस्मान की काबिलियत और उनकी दिलेरी के कारण उन्हें जिन्ना हर हाल में पाकिस्तान ले जाना चाहते थे, लेकिन मोहम्मद उस्मान इसके लिए तैयार नहीं थे। बहुत प्रलोभन तक पाकिस्तानियों की ओर से मोहम्मद उस्मान को दिए गए। पाकिस्तानी सेना का चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बनाने तक की बात की गई। फिर भी उस्मान का निश्चय अडिग था। वे भारतीय सेना में ही रहे। फिर उन्हें डोगरा रेजीमेंट में स्थानांतरित कर दिया गया था।

आजाद रहना चाहता था कश्मीर

जब दोनों देशों के बीच बंटवारा होने लगा तो कश्मीर की चाहत थी कि वह स्वतंत्र रहे। हालांकि, पाकिस्तान बहुत ही चालाक था। उसने यहां घुसपैठ करनी शुरू कर दी। कश्मीर घाटी, जहां हमेशा शांति पसरी रहती थी, वहां उसने कोहराम मचा कर रख दिया।

भारत में आया कश्मीर

पाकिस्तान पूरा दम लगा कर कश्मीर को हड़पना चाहता था। ऐसे में भारत से कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने सहायता मांगी। भारत ने मदद का हाथ बढ़ाया। कश्मीर इसके बाद भारत में शामिल हो गया। कश्मीर को बचाने के लिए भारत की सेना श्रीनगर पहुंची थी। पाकिस्तानी कबलियों से कश्मीर घाटी को भारतीय सेना को हर हाल में बचाना था। आरंभिक झटके जरूर लगे, लेकिन भारतीय सेना को यहां कामयाबी मिलनी शुरू हो गई।

धीरे-धीरे कश्मीर के एक-एक इलाके पर दोबारा कब्जा करते हुए भारतीय सेना आगे बढ़ने लगी। उधर पाकिस्तानी नौशेरा तक पहुंच गए थे। पुंछ में हजारों की तादाद में लोग फंसे थे, जिन्हें सेना किसी तरह से निकाल रही थी।

पाकिस्तानियों का कब्जा

कश्मीर के कई हिस्सों पर पाकिस्तान की सेना अपना कब्जा जमा चुकी थी। दुश्मन गुफाओं के अंदर छुप कर भारतीय सेना पर लगातार हमला कर रहे थे। ब्रिगेडियर उस्मान भी यहां अपनी बटालियन की अगुवाई कर रहे थे। दुश्मनों का सामना करना यहां बहुत ही कठिन था।

ब्रिगेडियर उस्मान की दिलेरी

ब्रिगेडियर उस्मान ने ठान लिया था कि वे पाकिस्तानियों के कब्जे से झंगड़ क्षेत्र को जरूर आजाद करा लेंगे। उन्होंने यह करके भी दिखाया। पाकिस्तान की सेना का सेना अध्यक्ष बनने की पेशकश ब्रिगेडियर उस्मान ने ठुकराई थी। उन्होंने इतनी बहादुरी यहां दिखाई कि पाकिस्तानियों के कब्जे से एक के बाद एक इलाके उन्होंने खींच कर वापस लाने शुरू कर दिए।

झंगड़ को तो भारत हासिल कर ही चुका था। इसके बाद बहादुरी दिखाते हुए नौशेरा को भी ब्रिगेडियर उस्मान ने जीत लिया। यही वजह थी कि वे नौशेरा का शेर के नाम से भी जाने जाने लगे। पाकिस्तानी सेना तक उस्मान की बहादुरी की कायल थी।

कुशल नेतृत्व

ब्रिगेडियर उस्मान रणनीति बनाने में बड़े ही कुशल थे। काबिलियत उनकी जबरदस्त थी। इस युद्ध में पाकिस्तान के 900 से भी ज्यादा सैनिक मारे गए थे। वहीं, भारतीय सेना के केवल 33 सैनिकों को इसमें अपनी शहादत देनी पड़ी थी।

50 हजार रुपये का इनाम

पाकिस्तान ब्रिगेडियर उस्मान की बहादुरी देखकर खौफ खा रहा था। किसी भी तरीके से वह ब्रिगेडियर उस्मान को खत्म करना चाहता था। उनके सिर पर पाकिस्तान की ओर से 50 हजार रुपये का इनाम भी रख दिया गया था।

ब्रिगेडियर उस्मान की शहादत

लगातार मिल रही हार से पाकिस्तान एकदम बौखला गया था। ऐसे में एक बार फिर से उसने झंगड़ पर कब्जा जमाने के लिए चढ़ाई करनी शुरू कर दी थी। ब्रिगेडियर उस्मान का 36वां जन्मदिन केवल 12 दिन की दूरी पर था, लेकिन 3 जुलाई, 1948 को युद्ध भूमि में लड़ते हुए ब्रिगेडियर उस्मान मातृभूमि के लिए शहीद हो गए।

जनाजे का हिस्सा बने नेहरू

ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान ऐसे अकेले भारतीय थे, जिन्होंने कि ब्रिगेडियर के पद पर रहते हुए देश के लिए अपनी शहादत दी थी। ब्रिगेडियर उस्मान के जनाजे का तब भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी हिस्सा बने थे।

ब्रिगेडियर उस्मान ने जो युद्ध में असीम वीरता और शौर्य का परिचय दिया, उसके लिए उन्हें महावीर चक्र से भी सम्मानित किया गया था। इस तरह से ब्रिगेडियर उस्मान ने पाकिस्तान की पेशकश को ठुकराते हुए भारत के लिए लड़ाई लड़ी और देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।