धोखा देना तो चीन की फितरत है। कथनी और करनी में उसके बहुत फर्क है। आज से नहीं। हमेशा से ऐसा रहा है। कूटनीतिक स्तर पर बातें उसकी शांति की होती है। वहीं सीमा पर उसके सैनिक सिर्फ अशांति चाहते हैं। हालिया गतिरोध भी भारत और चीन के बीच इसी का नतीजा है। भले ही भारत के 20 जांबाज शहीद हो गये, मगर चीन को भी कम नुकसान नहीं पहुंचा। वैसे, चीन पर भारत पहले भी भारी पड़ चुका है। तो चलिए लिये चलते हैं आपको 1967 में।
भारत और चीन के बीच 1962 में युद्ध हुआ था। इसके पांच साल बाद 1967 की बात है। जगह था नाथु ला दर्रा। चीन के भारत ने तब छक्के छुडा दिये थे। बताया जाता है कि 300 से भी अधिक सैनिक मारे गये थे तब चीन के। नुकसान भारतीय सैनिकों का भी हुआ, मगर कम। भारत के 65 जवान तब वीरगति को प्राप्त हुए थे।
घेर लिये गये थे दूतावास
भारत और चीन के बीच 1962 में जो युद्ध हुआ था उसके बाद दोनों देशों के राजदूत लौट गये थे। बस नई दिल्ली और बीजिंग में एक छोटा मिशन का संचालित हो रहा था। अचानक चीन ने जासूसी का आरोप मढ़ते हुए भारतीय मिशन में काम कर रहे दो कर्मचारियों को निष्कासित कर दिया। चीन में भारतीय दूतावास को भी उन्होंने घेर लिया था। कोई अंदर-बाहर नहीं आ-जा सकता था। जवाब भारत ने भी यहां वैसे ही दिया। शुरुआत इसकी 3 जुलाई, 1967 को हुई थी। अगस्त में यह खत्म हुआ।
फिर चीन ने अपने भेड़ों को झुंड को भारतीय सैनिकों द्वारा भगा ले जाने का आरोप लगाया। ऐसे में तब विपक्षी पार्टी भारतीय जनसंघ के सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने कमाल का विरोध जताया। भेड़ों का झुंड लेकर वे चीनी दूतावास पहुंच गये।
वर्ष 1965 में भारत-पाक युद्ध हुआ। पाकिस्तान की हार तय होने लगी। पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खां चुपके से चीन पहुंचे और मदद मांगी। चीन को पाक को मदद पहुंचानी थी। ऐसे में उसने भारत से सिक्किम सीमा पर जेलेप ला और नाथु ला चैकियों को खाली करने को कहा। जनरल बेवूर कोर मुख्यालय के इंजार्च थे। जनरल सगत सिंह से उन्होंने चैकियां खाली करने देने के लिए कहा।
बदला लेने की ठानी
जनरल सगत सिंह बोले- नहीं कर सकते। खाली करने से इतनी ऊंचाई पर स्थित नाथु ला पर वे कब्जा कर लेंगे। सिक्किम में हमारी हर गतिविधि देख पाएंगे। यहां के बारे में फैसला लेने का मुझे अधिकार दिया गया था। हालांकि 27 माउंट डिविजन वाले ने अपने अंतर्गत आने वाले जेलेप ला को खाली कर दिया। आज तक चीन का इस पर कब्जा भी है। बाद में चीनी सैनिकों ने 17 असम रायफल की एक बटालियन पर हमला बोल दिया। इससे दो सैनिक हमारे शहीद हो गये। इससे सगत सिंह इतने अधिक गुस्सा हुए थे कि उन्होंने बदला लेने की ठान ली थी।
जो घटना 6 सितंबर, 1967 को घटी, उसका जिक्र 2014 के 22 सितंबर के इंडियन डिफेंस रिव्यू में मिलता है। नाथु ला में उस वक्त तैनात मेजर जनरल शेरू थपलियाल ने इसके बारे में बताया है। नाथु ला में चीन और भारत के सैनिक गश्त करने लगे थे। मामूली तू-तू, मैं-मैं उस वक्त दोनों देशों के सैनिकों के बीच हो जाती थी। फिर धक्का-मुक्की भी होने लगी। चीन का राजनीतिक कमिसार 6 सितंबर को भारतीय सैनिकों के धक्के से गिर गया था। उसका चश्मा तब टूट गया था।
तनाव भारतीय सैनिक अधिकारी चीन के साथ घटाना चाह रहे थे। नाथु ला से सेबु ला तक जवानों ने ताड़ की बाड़ लगानी शुरू कर दी। भारत चीन सीमा को डिमार्कट करना था। 11 सितंबर को सुबह में यह शुरू हुआ। इंजीनियर्स और जवान इस काम में लगे। यहां 70 फील्ड कंपनी के इंजीनियर काम कर रहे थे। साथ ही 18 राजपूत के जवान भी लगे थे। सुरक्षा की जिम्मेवारी 2 ग्रेनेडियर्स संभाल रहे थे।
काम शुरू हुआ तो चीन का राजनीतिक कमिसार कुछ सैनिकों के साथ आ पहुंचा। कमिसार ही दरअसल टूटी-फूटी अंग्रेजी में बात कर पाता था। उसने 2 ग्रेनेडियर्स के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह से काम रोकने को कहा, मगर वे तैयार नहीं हुए। फिर तो अंधाधुंध फायरिंग मशीन गन से चीनी सैनिकों द्वारा शुरू कर दी गई।
तोप से फायर
चीनी सैनिक भारी पड़ रहे थे। भारतीय सैनिक घायल हुए जा रहे थे। वजह थी कि वे एकदम खुले में थे। छिपने की भी कोई जगह नहीं थी। कर्नल राय सिंह को तीन गोलियां लगी थीं। घायल सैनिकों को हटाने तक का मौका भारतीयों सैनिकों को मिल नहीं रहा था। ऐसे में जनरल सगत सिंह ने बहुत बड़ा फैसला लिया। तोप से फायरिंग के आदेश उन्होंने दे दिए। केवल प्रधानमंत्री तब ऐसे आदेश दे सकते थे। सेनाध्यक्ष तक यह आदेश नहीं दे सकते थे। तोप से फायर होने पर चीनी सैनिकों की लाशें बिछ गईं। कहा जाता है कि 300 से भी अधिक चीनी सैनिक इसमें मारे गये थे।
यही नहीं कैप्टन पीएस डागर की अगुवाई में चीनी ठिकानों पर भारतीय जवानों ने हमला भी बोला था। कैप्टन डागर के साथ मेजर हरभजन सिंह को अपनी शहादत देनी पड़ी थी। ऊंचाई पर होने का फायदा तीन दिनों की इस लड़ाई में तब भारत को मिला था। हालांकि इसके बाद लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह का ट्रांसफर इसके बाद कर दिया गया था। फिर भी मनोवैज्ञानिक रूप से भारतीय सैनिक और मजबूत तब जरूर हो गये थे।