Headline

सियाचिन ग्लेशियर को लेकर अक्सर चर्चा होती रहती है। एक ओर भारत की सेना तो दूसरी ओर पाकिस्तान की सेना यहां हमेशा आंख गड़ाए बैठी हुई नजर आ जाती है।

TaazaTadka

1971 की जंग में खदेड़ दिया था पाकिस्तानी सेना को, होशियार सिंह बने थे नायक

यह 1971 की बात है। भारत और पाकिस्तान के बीच जंग हो रही थी। बसंतर की लड़ाई 1971 की जंग में बड़ी मायने रखती है। भारत को जरपाल नामक पोस्ट पर कब्जा जमाना था।
Information Anupam Kumari 17 August 2020
1971 की जंग में खदेड़ दिया था पाकिस्तानी सेना को, होशियार सिंह बने थे नायक

यह 1971 की बात है। भारत और पाकिस्तान के बीच जंग हो रही थी। बसंतर की लड़ाई 1971 की जंग में बड़ी मायने रखती है। भारत को जरपाल नामक पोस्ट पर कब्जा जमाना था। भारत के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण था। ऐसे में कमांडर सी कंपनी मेजर होशियार सिंह को जिम्मेवारी सौंपी गई थी। उन्हें इस पोस्ट पर जल्द-से-जल्द तिरंगा फहराने का आदेश मिला था।

दिखाया गजब का पराक्रम

हालात बिल्कुल भी अनुकूल नहीं थे। होशियार सिंह के लिए यह करना आसान नहीं था। फिर भी बहादुरी तो उनके नस-नस में भरी हुई थी। बहुत ही बहादुरी के साथ वे दुश्मनों से लड़े थे। इस संघर्ष में बुरी तरीके से होशियार सिंह घायल भी हो गए थे। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी थी। अपनी यूनिट का उन्होंने पूरी बहादुरी से नेतृत्व किया था। यहां तक कि पाकिस्तानी सेना को उन्होंने खदेड़ दिया था।

होशियार सिंह ने गजब का पराक्रम दिखाया था। तभी तो उन्हें बाद में परमवीर चक्र से भी सम्मानित किया गया था। सबसे अहम बात यह रही कि जीवित रहते उन्हें यह पुरस्कार मिला था।

सपना जो बचपन से संजोया

बचपन से ही सेना में जाने का सपना होशियार सिंह ने देखा था। सिपाही के तौर पर वे भारतीय सेना में भर्ती हुए थे। वर्ष 1957 में 2 जाट रेजिमेंट का वे हिस्सा बने थे। पढ़ना उन्होंने नहीं छोड़ा था। इसी पढ़ाई के दम पर 6 साल बाद एक और कामयाबी मिली। सेना में वे अधिकारी बन गए।

ग्रेनेडियर रेजीमेंट में उन्हें 1963 में कमीशन मिला था। वर्ष 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के वक्त वे बीकानेर सेक्टर में तैनात थे। यहां उन्होंने कमाल का रणकौशल दिखाया था। इससे वे सीनियर्स के चहेते बन गए थे।

भेजे गए शकरगढ़

फिर आया साल 1971। पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान ने जंग की शुरुआत कर दी थी। इस दौरान ग्रेनेडियर रेजीमेंट की तीसरी बटालियन को शकरगढ़ भेजा गया था। मेजर होशियार सिंह भी इसके साथ पहुंच गए थे। बसंतर नदी पर पुल का निर्माण करना था। इसकी जिम्मेदारी होशियार सिंह की बटालियन को मिली थी। यह एक बहुत ही कठिन काम था। इसमें बड़ी चुनौतियां थीं।

दिक्कत लैंडमाइन की थी। दोनों ही किनारे नदी के गहरी लैंडलाइन से ढके हुए थे। पाकिस्तानी सेना की पोजीशन दूसरी और बहुत ही मजबूत थी। नदी के किनारे की ओर बढ़ने का बस एक ही मतलब था। यह बिल्कुल मौत के मुंह में जाने जैसा था।

जरपाल की ओर बढ़े

फिर भी किसी तरह से भारतीय सेना ने इसका हल निकाल लिया था। होशियार सिंह को एक आदेश दिया गया। जल्द-से-जल्द उन्हें जरपाल पर कब्जा करने के लिए कहा गया। जरपाल पाकिस्तान के इलाके में स्थित था। कब्जा जरपाल पर करना बहुत ही आवश्यक था। वह इसलिए कि दुश्मनों को यहां से कमजोर किया जा सकता था।

होशियार सिंह जान रहे थे कि इस पर कब्जा करना कितना महत्वपूर्ण है। वे तो आदेश का इंतजार ही कर रहे थे। आदेश मिला नहीं कि वे कूच कर गए। अपनी यूनिट के साथ उन्होंने आगे बढ़ना शुरू कर दिया।

पल भर में सब बदला

दुश्मनों पर वे ताबड़तोड़ हमला कर रहे थे। पाकिस्तानी सेना भी जवाब दे रही थी। उधर से भी भारी गोलीबारी हो रही थी। होशियार सिंह के साथ चल रहे कई जवान शहीद हो गए थे। जो साथी बच्चे थे, उनका भी हौसला अब जवाब देने लगा था।

होशियार सिंह घायल हो चुके थे। फिर भी वे सभी का उत्साह बढ़ा रहे थे। उन्होंने होशियारी दिखाते हुए सभी को अपनी पोजीशन लेने के लिए कहा। बस कुछ ही पलों मैं उन्होंने सब कुछ बदल डाला। उनकी यूनिट ने दुश्मनों की गन मशीनों को निशाना बनाया। इस तरह से दुश्मनों को उन्होंने नाको चने चबवा दिए। आखिरकार जरपाल पर भारत का कब्जा हो गया।

जीवित रहते परमवीर चक्र

भारत को 1971 की इस लड़ाई में जीत मिली। होशियार सिंह इस जीत के नायक बनकर उभरे थे। उन्हें परमवीर चक्र से भी सम्मानित किया गया। होशियार सिंह को 6 दिसंबर, 1998 को दिल का दौरा पड़ा था। इसके बाद उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया था। होशियार सिंह की बहादुरी के किस्से अमर हो गए।

Anupam Kumari

Anupam Kumari

मेरी कलम ही मेरी पहचान