कांग्रेस का एक दौर हुआ करता था। आजादी के बाद केवल कांग्रेस ही कांग्रेस हुआ करती थी। केंद्र के साथ अधिकतर राज्यों में कांग्रेस की सरकार ही हुआ करती थी। बिहार में भी स्थिति कुछ अलग नहीं थी। कांग्रेस की तूती बोल रही थी। हर चुनाव में कांग्रेस जीतती जा रही थी।
सत्ता से रहना पड़ा था दूर
हालांकि, बाद में कांग्रेस की हालत खराब भी हुई। सत्ता से उसे दूर भी रहना पड़ा। वर्ष 1972 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण रहा। बिहार में यह विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए खुशियां लेकर आया था। यह मध्यावधि चुनाव था। 10 साल बाद कांग्रेस की वापसी हुई थी। एक बार फिर से कांग्रेस की सरकार बिहार में बनी थी।
मध्यावधि चुनाव की नौबत
पूर्ण बहुमत वाली यह कांग्रेस की सरकार थी। अंतिम बार कांग्रेस को 1962 के विधानसभा चुनाव में जीत मिली थी। तब कांग्रेस ने सत्ता में खुद को काबिज किया था। 5 साल बीत गए। फिर 1967 में बिहार विधानसभा चुनाव हुए थे। इसी के दो साल बाद 1969 में मध्यावधि चुनाव हुआ था। कांग्रेस के लिए यह बहुत ही बुरा रहा।
बहुमत से दूर
कांग्रेस को बिहार में बहुमत नहीं मिल पाया था। ऐसे में संयुक्त विधायक दल और मिली-जुली सरकार कई बार बनी थी। ये सभी सरकारें गिरती चली गई थीं। फिर आया साल 1972। राज्य में फिर से मध्यावधि चुनाव की नौबत आ गई। राजनीतिक उथल-पुथल बिहार में बहुत हो रही थी। कोई सरकार टिक नहीं पा रही थी। सरकारें एक के बाद एक बन रही थीं और गिर रही थीं। ऐसे में मध्यावधि चुनाव हो गए।
इनकी हुई पौ बारह
कांग्रेस की तो इस बार पौ बारह हो गई। कांग्रेस को बहुत फायदा इस चुनाव में मिला। इससे पहले 1971 में लोकसभा चुनाव हुए थे। कांग्रेस के लिए यह चुनाव भी फायदेमंद रहा था। केंद्र में कांग्रेस की सरकार तब बनी थी। यह एक मजबूत सरकार हुआ करती थी। सरकार पूर्ण बहुमत में थी। इसी के अगले साल बिहार में विधानसभा चुनाव हुआ था।
किसे कितनी सीटें
1972 के चुनाव में पूर्ण बहुमत कांग्रेस को मिली थी। कांग्रेस को 167 सीटें मिल गई थीं। इस चुनाव में जनसंघ भी 25 सीटें जीतने में कामयाब रहा था। 30 सीटें संगठन कांग्रेस के खाते में गई थीं। उसी तरह से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी भी 10 सीटों को जीतने में कामयाब रही थी। इन सब के अलावा 1972 में 35 सीटें सीपीआई को भी मिली थीं।
मिली थी जीत
नीतन विधानसभा सीट से कांग्रेस के केदार पांडेय को जीत मिली थी। विधायक दल का नेता उन्हें ही चुना गया था। इसका मतलब था कि वे मुख्यमंत्री बनने वाले थे। ऐसा ही हुआ। 19 मार्च, 1972 को सरकार बनी। यह कांग्रेस की सरकार थी। केदार पांडेय की अगुवाई में यह सरकार बनी थी। हालांकि, गुटबंदी इसमें भी खूब होने लगी। नतीजा हुआ कि 13 महीने में ही केदार पांडेय कि यह सरकार गिर गई।
उस वजह से हुए मजबूर
इस्तीफा देने की नौबत आ गई थी केदार पांडेय की। अपने मंत्रियों के कारण त्यागपत्र देने को वे मजबूर हुए थे। वरिष्ठ पत्रकार हेमंत ने बिहारनामा नामक एक किताब लिखी है। इसमें उन्होंने इसके बारे में बताया है। यह किताब बिहार विधान परिषद की तरफ से प्रकाशित की गई थी।
चाहिए था इस्तीफा
दरअसल हुआ यह था कि केदार पांडेय को अपने कुछ मंत्रियों का इस्तीफा चाहिए था। ये मंत्री इस्तीफा दे नहीं रहे थे। कोई और विकल्प नहीं बचा था मुख्यमंत्री के पास। उन्होंने इस्तीफा देना ही उचित समझा। सरकार इस तरीके से गिर गई। 1973 के अप्रैल में मंत्रिमंडल को केदार पांडेय ने भंग कर दिया था। मुख्यमंत्री तो गए ही, सारे मंत्री भी चले गए।
बनाये गए नए मुख्यमंत्री
अब आया 28 अप्रैल, 1973 का दिन। एक बार फिर से मुख्यमंत्री बने थे केदार पांडेय। मुख्यमंत्री वे दोबारा बन गए, लेकिन गुटबाजी खत्म नहीं हुई थी। यह और बढ़ती ही जा रही थी। नतीजा हुआ कि 66 दिनों में इन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। 2 जुलाई, 1973 को नए मुख्यमंत्री बन गए। नाम था अब्दुल गफूर।
दरअसल मुख्यमंत्री के प्रति 24 मंत्रियों ने अविश्वास प्रकट कर दिया था। दिल्ली से टीम भी आई थी। उन्होंने बैठक करके रास्ता निकाला था। केदार पांडेय को मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था।