एक वक्त श्रीलंका सिविल वॉर की चपेट में था। 80 का दशक तब खत्म ही हुआ था। भारत और श्रीलंका के बीच एक समझौता हुआ था। श्रीलंका में शांति व कानून व्यवस्था बहाल करने की जिम्मेवारी भारतीय सेना को मिली थी। श्रीलंका में भारत ने ऑपरेशन पवन चलाया था। यह ऑपरेशन 1987 से 1990 तक चला था। ऑपरेशन पवन के अंतर्गत मेजर रामास्वामी परमेश्वरन भी श्रीलंका गए थे।
मिजोरम और त्रिपुरा में युद्ध के दौरान उनकी कार्यशैली से सभी बड़े प्रभावित हुए थे। श्रीलंका में वे भी शांति बहाली के काम में जुटे हुए थे। मेजर को 24 नवंबर, 1987 को एक महत्वपूर्ण सूचना मिली। पता चला कि जाफना के उदुविल शहर के पास एक गांव में कुछ हो रहा है। बड़ी मात्रा में यहां हथियार और गोला-बारूद जमा किए गए हैं।
भारत की सेना को एक महत्वपूर्ण जिम्मेवारी मिली थी। श्रीलंका में शांति बहाली जरूरी थी। मेजर परमेश्वरन को जैसे ही सूचना मिली, वे तुरंत मौके पर पहुंच गए। उन्होंने उस घर को चारों ओर से घेर लिया था। यह वही घर था, जहां हथियारों का जखीरा मौजूद होने की सूचना मिली थी।
उन्होंने योजना बना ली थी कि क्या करना है। फिर उन्होंने कुछ तय किया। तय यह हुआ कि तलाशी अभियान वे चलाएंगे। शुरुआत 25 नवंबर की सुबह करने का निर्णय लिया गया। खबर बाहर निकल गई। दुश्मनों को इस बात की भनक लग गई। उन्होंने भी अब हमला करने की तैयारी कर ली।
परमेश्वरन के समूह को पता भी नहीं चला कि क्या होने वाला है। उन पर हमला हो गया। परमेश्वरन एक बात समझ गए थे। वे जान गए थे कि इसका मकसद तलाशी अभियान को किसी भी तरह से रोकना है। उनमें खौफ पैदा करना है, ताकि तलाशी अभियान आगे न बढ़े। परिस्थितियां बिल्कुल भी उनके अनुकूल नहीं थीं। चुनौतियां बड़ी थीं।
स्थिति दुश्मनों की बहुत मजबूत थी। परमेश्वरन का इरादा भी उतना ही मजबूत था। मजबूत स्थिति में होने के बावजूद दुश्मन परमेश्वरन को कमजोर नहीं कर सके। हमला हो चुका था। इसके बावजूद अपनी टीम के साथ परमेश्वरन आगे बढ़ते जा रहे थे। उन्हें हर हाल में तलाशी करनी थी। परमेश्वरन को यह मालूम था कि वे हमला कैसे करेंगे। वे जानते थे कि दुश्मन घात लगाकर हमला करने वाले हैं।
परमेश्वरन ने दुश्मनों के विरुद्ध इसी का इस्तेमाल कर दिया। उन्होंने बहुत ही जल्द उन्हें हर ओर से घेर लिया। दुश्मनों का बचना अब बहुत मुश्किल था। मेजर बहुत ही तेजी से काम कर रहे थे। दुश्मनों को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। वे नहीं समझ पा रहे थे कि अब करना क्या है। उनके रास्ते में मेजर परमेश्वरन बहुत बड़ी रुकावट बन कर खड़े थे। अपने मजबूत इरादों के साथ वे एकदम अडिग थे।
दुश्मन अब हताश होने लगे थे। उन्हें समझ आ गया था कि परमेश्वरन को अपने रास्ते से हटाए बिना वे कुछ नहीं कर सकते। इसलिए उन्होंने अब बाकी चीजें छोड़ दीं। सीधे परमेश्वरन को उन्होंने निशाना बनाना शुरू किया। परमेश्वरन पर सब मिलकर हमला करने लगे। छिपकर उनकी ओर गोलियां चलाईं। उनकी गोली का निशाना मेजर परमेश्वरन बन ही गए। मेजर के हाथ में यह गोली लग गई। इस वजह से मेजर बहुत ही बुरी तरह से घायल हो गए।
दुश्मनों को लगा कि चलो काम हो गया। उनके रास्ते का कांटा दूर हो गया। लेकिन दुश्मन गलत थे। मेजर परमेश्वरन ने अब भी हिम्मत नहीं हारी थी। उन्होंने पूरी हिम्मत के साथ अब भी दुश्मनों से लोहा लिया। बुरी तरीके से वे घायल थे। फिर भी दुश्मनों की राइफल छीनने का उन्होंने प्रयास किया। तभी एक और गोली चली। यह मेजर परमेश्वरन के सीने में जाकर धंस गई। जमीन पर वे गिर पड़े। मौत सामने थी। जिंदगी की आखिरी सांस वे ले रहे थे।
इसके बावजूद परमेश्वरन का हौसला देखने लायक था। अपने कर्तव्यों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता देखने लायक थी। अपनी मातृभूमि के प्रति उनका समर्पण अतुलनीय था। जीवन के अंतिम क्षण में पहुंचने के बाद भी अपने साथियों का हौसला वे लगातार बढ़ा रहे थे।
अपनी टीम में मरते-मरते भी उन्होंने गजब का जोश भर दिया। उनकी टीम जी-जान से लड़ी। पांच आतंकवादियों को उन्होंने मार गिराया। उन्होंने तलाशी भी जारी रखी। इस दौरान उन्हें बहुत सी राइफलें और रॉकेट लॉन्चर आदि मिले।
इस ऑपरेशन में मेजर परमेश्वरन को अपनी शहादत देनी पड़ी। शहीद होने के बावजूद उन्होंने दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए थे। उनकी बहादुरी आज भी प्रेरणा देती है। उनकी शहादत पर देश को आज भी गर्व है। तभी तो मरणोपरांत मेजर परमेश्वरन को परमवीर चक्र प्रदान किया गया था।