इस बार के लोकसभा चुनाव के नतीजे बिहार की राजनीति का भविष्य भी तय कर देंगे. अगर इस बार बिहार की 40 सीटों के चुनावी नतीजें केंद्र और राज्य की सत्ताधारी गठबंधन के विरुद्ध आएं तो राज्य की सरकार पर खतरा होना तय है क्योंकि लंबे समय तक सत्ता में रहकर सीएम नीतीश कुमार ने अनेकों दुश्मन पैदा कर लिए हैं. ये दुश्मन विरोधी पार्टियों में ही नहीं बल्कि उनके अपने दल और गठबंधन में भी हैं. मालूम हो कि बिहार में इस बार एनडीए के उम्मीदवारों को केंद्र और राज्य दोनों के सत्ताविरोधी माहौल का सामना करना पड़ रहा है.
चुनावी पंडितों का मानना है कि उपर से भले ही ऐसा लग रहा हो कि बिहार में भाजपा और जदयू के एक होने से इनका संयुक्त वोट प्रतिशत काफी ज्यादा हो गया है लेकिन अंदरखाने की रिपोर्ट अमित शाह और नीतीश कुमार, दोनों की चिंताए बढ़ाने के लिए काफी है. ग्राउंड रिपोर्ट्स के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा और जदयू की हाल अच्छी नहीं है. किसानों की दुर्दशा और बंद होती सरकारी नौकरियों की वजह से लोग एनडीए सरकार से खासे खफा नजर आ रहे हैं.
जैसा की आपको मालूम होगा कि बिहार की राजनीति जातीय समीकरणों के हिसाब से चलती है. उसके मुताबिक भी यूपीए बिहार में आगे चल रहा है. यादव, मुस्लिम, कुशवाहा, मल्लाह, नोनिया, बिंद, 75 प्रतिशत दलित और 25 फीसदी सवर्ण अभी इस गठबंधन के साथ दिख रहा है. ऐसे में यह मत प्रतिशत 50 फीसदी से ज्यादा हो जाता है.
अगर लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी अपेक्षानुसार परिणाम नहीं दे पाती है तो जदयू के कई विधायक राजद खेमे में जा सकते हैं. खास तौर पर उनके दल के यादव और मुस्लिम विधायक नीतीश कुमार से पीछा छुड़ा सकते हैं. कई निर्दलीय विधायक भी यूपीए के साथ जा सकते हैं. अभी हाल में ही नीतीश कुमार के खासमखास माने जाने वाले निर्दलीय विधायक अनंत सिंह ने कांग्रेस और राजद को समर्थन करने का ऐलान कर दिया है. ऐसे कई विधायक हैं जो निरंतर नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के संपर्क में हैं. अभी राजद, कांग्रेस और माले के विधायकों की कुल संख्या 112 है जबकि बिहार में सरकार बनाने के लिए 122 विधायकों का समर्थन चाहिए. इतना तो तय है कि अगर केंद्र में सरकार बदलती है तो बिहार में नीतीश कुमार के सरकार के गिनती के दिन शेष रह जाएंगे क्योंकि हर हाल में कांग्रेस नीतीश कुमार से धोखेबाजी का बदला लेगी.