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आजाद भारत में यहीं से हुई थी दलितों और सवर्णों के बीच संघर्ष की शुरुआत

कम्युनिस्ट आंदोलन 1960 से 70 के दशक में अपने पांव पसारे हुए था। हजारों दलित मजदूरों के साथ भूमिहीन किसानों का इन आंदोलनों को समर्थन प्राप्त था।
Information Anupam Kumari 6 January 2020

जब आप दक्षिण भारतीय फिल्मों को देखते हैं तो उनमें आपको मारधाड़ और हिंसा बहुत नजर आती है। यही नहीं, भारत के दक्षिण भारतीय राज्यों का इतिहास यदि आप उठाकर देखेंगे तो इन राज्यों में और विशेष तौर पर तमिलनाडु के इलाकों में जातिगत खूनी संघर्षों का लंबा इतिहास रहा है। 15वीं शताब्दी के दौरान यहां इदांकी और वालांकी जातियों के बीच लगातार हिंसक झड़प होते रहते थे। दोनों जातियों के बीच जो हिंसक संघर्ष हुआ करते थे, इनका जिक्र कई ऐतिहासिक दस्तावेजों में भी मिल जाता है। करीब छः दशक पहले यहां किल्वेनमनी हत्याकांड हुआ था। ऐसा माना जाता है कि इसके बाद से ही केवल इस राज्य में ही नहीं, बल्कि आजाद भारत में भी इस तरह की घटनाओं का आगाज हो गया था।

किसानों की एकजुटता

तंजावूर जिले में किल्वेनमनी नाम का एक कस्बा बसा हुआ है। यहां कम्युनिस्ट आंदोलन 1960 से 70 के दशक में अपने पांव पसारे हुए था। हजारों दलित मजदूरों के साथ भूमिहीन किसानों का इन आंदोलनों को समर्थन प्राप्त था। आंदोलन में जो भूमिहीन किसान और दलित मजदूर शामिल थे, वे अपनी आजीविका चलाने के लिए बड़े किसानों पर आश्रित थे। ये किसान अधिकतर सवर्ण हुआ करते थे। कम्युनिस्ट आंदोलन के कारण ही इन किसानों में एकजुटता थी। जब भी इन्हें अपनी मजदूरी बढ़ानी होती थी तो ये लोग आंदोलन कर देते थे।

सीपीआई ने मौके को भुनाया

इसी दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी कि सीपीआई से जुड़े कुछ स्थानीय नेताओं की मौत हो गई। इस वजह से यह आंदोलन कमजोर पता चला गया। उसी दौरान 1966-67 में तंजावुर के साथ इसके आसपास के इलाकों में सूखे की समस्या पैदा हो गई। इस वजह से जो बड़ी आबादी प्रभावित हुई थी, उसमें बड़ी संख्या में मजदूर शामिल थे। अब इनका कमाना-खाना मुश्किल हो गया था। ऊपर से बड़े किसानों की ओर से इन्हें मजदूरी भी बहुत कम दी जा रही थी। इस वजह से उनमें आक्रोश पनपता जा रहा था। जैसे-जैसे समय बीता, इनकी हालत और भी खराब होती चली गई। ऐसे में सीपीआई ने सोचा कि यही बढ़िया मौका है इनके बीच अपनी पैठ को और बढ़ाने का। ऐसे में उसने इन्हें एकजुट करना शुरू कर दिया।

हत्या और प्रतिशोध

इसी दौरान एक बड़े किसान की हत्या कर दी गई। इसकी वजह से बड़े किसान भी एकजुट हो गए। इस तरह से जो छोटे और भूमिहीन किसान एकजुट आंदोलन कर रहे थे, अब उनके टक्कर में बड़े किसान भी एकजुट होकर खड़े हो गए थे। ऐसे में दोनों के बीच टक्कर होने की आशंका और बढ़ गई थी। कहा जाता है कि किल्वेनमनी हत्याकांड जो हुआ था, वह इसी के प्रतिशोध की एक घटना थी। बताया जाता है कि 25 दिसंबर, 1969 को किल्वेनमनी में दलितों की एक बसाहट पर इन्हीं सवर्ण किसानों के इशारे पर कुछ लोगों द्वारा हमला बोल दिया गया था। उस दौरान कई दलित परिवार एक ही भवन में जमा हुए थे। कहा जाता है कि इसी भवन में इन लोगों द्वारा आग लगा दी गई थी। आजाद भारत में दलितों के ऊपर जो हमले हुए, उनमें से इसे पहली बड़ी घटना के तौर पर याद किया जाता है।

यूं आया सामने

सबसे हैरान करने वाली बात यह थी कि उस वक्त यहां डीएमके के अन्नादुरई की सरकार थी। शुरुआत में कोई भी कार्रवाई करने में सरकार की ओर से हिचक देखने को मिली। घटना सुर्खियों में तभी आ पाई जब सीपीआई के नेताओं ने विधानसभा में इससे संबंधित सवाल पूछने शुरू कर दिए। इससे पहले तक इस घटना को दबाने की पूरी कोशिश की गई थी ऐसा लोग बताते हैं। सीपीआई इस घटना को पूरी तरह से दलितों और सवर्णों के बीच संघर्ष की रूप में पेश नहीं करके इसे वर्गीय संघर्ष के तौर पर दिखा रही थी। हालांकि राज्य के इतिहास को देखते हुए इस घटना को किसी वर्गीय संघर्ष की तरह नहीं, बल्कि इसे जातिगत उत्पीड़न के तौर पर ही देखा जाता रहा है।

और कोई नहीं मिला दोषी

बाद में जब न्यायालय में इस मामले की सुनवाई होने लगी तो किल्वेनमनी हत्याकांड में जिला न्यायालय की ओर से आठ लोगों को दोषी ठहरा दिया गया था। दोषी करार दिए गए लोगों ने जब मद्रास उच्च न्यायालय का रुख किया और यहां अपील दायर की तो अदालत की ओर से जिला न्यायालय के फैसले को पलटते हुए सभी को निर्दोष करार दे दिया गया। जो हत्याकांड दिनदहाड़े हुआ था, उसमें कोई भी दोषी नहीं पाया गया। माना जाता है कि इसके बाद से ही आजाद भारत में कई मौकों पर सवर्णों और दलितों के बीच संघर्ष के कई मामले सामने आए।

Anupam Kumari

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