सियाचिन में अपने तीन महीने का कार्यकाल 11 गोरखा राइफल की पहली बटालियन पूरा कर चुकी थी। इंतजार था उन्हें अब पुणे में अपनी पीस पोस्टिंग का। मौसम यहां का दुश्मनों से भी ज्यादा खतरनाक था। सभी सैनिकों का लगभग 5 से 6 किलो वजन कम हो चुका था।उन्ही में से एक सैनिक थे कैप्टन मनोज।
अचानक एक आदेश आया। कहा गया कि बटालियन के जो सैनिक बचे हैं, वे पुणे न जाकर कारगिल पहुंचें। कारगिल में बटालिक की तरफ उन्हें बढ़ना था। पाकिस्तानी घुसपैठ कर रहे थे।
कर्नल ललित राय को खालोबार चोटी पर कब्जा करने का लक्ष्य सौंपा गया था। दुश्मन बहुत ऊंचाई पर थे। ऐसे में इस चोटी को जीतना जरूरी था। सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए यह जरूरी था।
गोरखा राइफल्स की दो कंपनियां इसके लिए चुनी गयीं। कर्नल ललित राय भी चढ़ाई कर रहे थे। अचानक पाकिस्तानियों ने गोली बरसानी शुरू कर दी। सैनिक इधर-उधर हो गए। तोप के गोले सैनिकों पर बरस रहे थे। पाकिस्तानी ऊपर से ग्रेनेड लॉन्चर और रॉकेट लॉन्चर से हमला कर रहे थे।
कर्नल ललित राय ने बीबीसी के साथ बातचीत में बताया भी था कि लगभग 60 से 70 मशीन गनें उनके ऊपर फायरिंग कर रही थीं। इनसे निकलने वाली गोलियों की रफ्तार 2900 फीट प्रति सेकेंड की होती है।
खालोबार टॉप से लगभग 600 गज नीचे सैनिक पहुंच चुके थे। फायरिंग लगातार हो रही थी। ऐसे में दो टुकड़ियों को बनाने का निर्णय कर्नल राय ने लिया। उनके सबसे निकट जो अधिकारी मौजूद थे, उनका नाम कैप्टन मनोज पांडे था। उन्होंने कैप्टन मनोज को अपनी प्लाटून को लेकर जाने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि 4 बंकर ऊपर दिख रहे हैं। उन पर हमला बोलकर तुम्हें उन्हें खत्म कर देना है।
रात का घना अंधेरा था। कड़कड़ाती ठंड थी। फिर भी कैप्टन मनोज तेजी से ऊपर की ओर बढ़ गए। तापमान शून्य से नीचे था। फिर भी कैप्टन मनोज की अगुवाई में भारतीय सैनिक चढ़ाई कर रहे थे। कपड़े उनके पसीने से इतनी ठंड में भी भीग गए थे।
आधे रास्ते में इनकी 1 लीटर की पानी की बोतल खत्म हो गई। बर्फ तो चाट सकते थे, लेकिन बारूद के कारण यह बहुत प्रदूषित हो चुकी थी। पानी की एक बूंद बोतल में थी बची हुई। फिर भी मनोवैज्ञानिक कारणों से इस एक बूंद को अंत तक बचाकर रखना जरूरी था। कैप्टन मनोज ने सूखे होठों पर बर्फ रगड़ लिया।
ऊपर पहुंचने पर पता चला कि 4 नहीं बल्कि 6 बंकर है। हर बंकर से उनके ऊपर गोलियां बरस रही थीं। हवलदार दीवान को दो बंकरों को उड़ाने के लिए कैप्टन मनोज ने आगे भेजा। दीवान ने बंकरों को तबाह तो किया,मगर वे शहीद हो गए।
अब बाकी बचे चार बंकरों को भी नष्ट करना था। बंकरों को उड़ाने का एक ही तरीका होता है। उसमें लूप होल में ग्रेनेड डाल दिया जाता है। इससे उसमें बैठे लोग उड़ जाते हैं। तीन बंकर तो मनोज ने एक-एक करके ध्वस्त कर दिए। चौथे बंकर में ग्रेनेड फेंकते वक्त उनके शरीर में बायीं ओर गोलियां लग गईं। कैप्टन मनोज घायल हो गए। उनके शरीर से खून बहने लगा।
बाकी जवानों ने कैप्टन मनोज को कहा कि एक ही बंकर अब बचा है। आप बैठिए हम उन्हें ठिकाने लगा देते हैं। इस पर कैप्टन मनोज ने उन्हें रोक दिया। कहा- कमांडिंग ऑफिसर ने मुझे यह काम दिया है। मेरा कर्तव्य है कि मैं ही इस अटैक को लीड करूं।
चौथे बंकर के पास कैप्टन मनोज रेंगते हुए पहुंच गए। उनके शरीर से खून भी काफी निकल चुका था। फिर किसी तरह खड़े हुए। उन्होंने ग्रेनेड फेंकने का प्रयास किया। पाकिस्तानियों की नजरें कैप्टन मनोज पर पड़ गईं। मशीन गन से चार गोलियां उन्होंने उन पर दाग दीं। गोलियां हेलमेट को चीरकर निकल गईं। माथे को चीरती हुईं गोलियां बाहर हो गईं। कैप्टन मनोज का सिर उड़ गया। जमीन पर वे गिर पड़े।
मरते-मरते भी कैप्टन मनोज के मुंह से निकला ना छोड़नूं। मतलब इसका होता है कि उन्हें छोड़ना मत। महज 24 साल और 7 दिन की उम्र में कैप्टन मनोज शहीद हो गए। हालांकि, मरने से पहले उन्होंने पाकिस्तानी बंकरों को तबाह कर दिया था।
चोटी पर प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हमारे सैनिक लड़े थे। बिना खाए-पिए तीन दिन उन्होंने वहां बिताए थे। कैप्टन मनोज कुमार पांडे को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।
कर्नल ललित राय के पैर में भी इस अभियान के दौरान गोली लगी थी। उन्हें भी वीर चक्र से सम्मानित किया गया था। खालोबार पर आखिरकार तिरंगा इन्होंने लहरा ही दिया था।