यह 1971 का वक्त था। भारत और पाकिस्तान के बीच गहमागहमी बढ़ती ही जा रही थी। युद्ध की आशंका उस वक्त जताई जाने लगी थी। पाकिस्तान ने जो गलत नीतियां अपनाई हुई थीं, उसके परिणाम सामने आ रहे थे। पूर्वी पाकिस्तान में जुल्म और बर्बरता बढ़ती ही जा रही थी। भारत के पश्चिम बंगाल में भी इसके कारण शरणार्थी बढ़ते जा रहे थे।
पाकिस्तान की यही नीतियां आखिरकार युद्ध का कारण बन गईं। भारत और पाकिस्तान के बीच 3 दिसंबर, 1971 को भयानक युद्ध शुरू हो गया। इस दौरान अरुण खेत्रपाल जो कि सेना में सेकंड लेफ्टिनेंट थे, वे भी युद्ध में शामिल होना चाहते थे। ऐसे में वे अपने कमांडिंग ऑफिसर के पास पहुंचे। वहां उन्होंने उनसे अपनी इच्छा जताई। देश की रक्षा के लिए अरुण इस युद्ध को लड़ना चाहते थे।
हालांकि कमांडर ने उन्हें साफ मना कर दिया। कमांडर हनूत सिंह ने उन्हें कहा कि तुम्हारी यंग ऑफिसर कोर्स की ट्रेनिंग अभी बाकी है। ऐसे में तुम युद्ध में नहीं जा सकते हो। यह सुनकर अरुण ने उन्हें मनाने का बहुत प्रयास किया। उन्होंने उनसे कहा कि आज उन्हें इसकी इजाजत देनी ही पड़ेगी। यदि उन्हें युद्ध में जाने की इजाजत नहीं मिली तो ऐसा सुनहरा अवसर देश सेवा का फिर नहीं मिलेगा। खेत्रपाल लगातार हनूत सिंह से अनुरोध करते रहे।
हनूत सिंह को आखिरकार झुकना पड़ा। उन्होंने एक शर्त रख दी। अरुण खेत्रपाल से उन्होंने कहा कि एक वरिष्ठ सूबेदार के साथ वे युद्ध में जाएंगे। साथ ही कहा कि बिना सूबेदार की सलाह के लिए वे कोई कदम नहीं उठाएंगे। अरुण तैयार हो गए। अपनी बहादुरी का परिचय देने का इससे बढ़िया मौका और क्या हो सकता था।
अपनी सेना के साथ 16 दिसंबर को बसंतर नदी के इलाके में अरुण मौजूद थे। बसंतर नदी की तरफ पाकिस्तानी सेना तेजी से बढ़ रही थी। इसी दौरान एक दूसरी सैन्य टुकड़ी से संदेश आया। कहा गया कि मदद चाहिए। दुश्मनों के पास टैंक ज्यादा हैं। हमें ऐसे में और सैनिकों की जरूरत है।
अरुण खेत्रपाल ने इस संदेश को सुना। उन्होंने ठान लिया कि अब कुछ करना पड़ेगा। अपने तीन टैंक के साथ बसंतर नदी के शंकरगढ़ सेक्टर की ओर चल पड़े। जरपाल इलाके में वे पहुंच गए। यहां उन्होंने दुश्मनों से लोहा लेना शुरू कर दिया। दुश्मनों को मुंहतोड़ जवाब अरुण पूरी बहादुरी से दे रहे थे।
लड़ते-लड़ते उनके दोनों साथी घायल हो गए। कैप्टन मल्होत्रा भी इनमें शामिल थे। परिस्थितियां प्रतिकूल हो गई थीं। फिर भी अरुण अकेले लड़े जा रहे थे। दुश्मनों की टैंकों को वे लगातार बर्बाद कर रहे थे। पाकिस्तानी सेना के सात टैंक अरुण अकेले नष्ट कर चुके थे। अरुण अब भी लगातार आगे की ओर बढ़ रहे थे।
कैप्टन मल्होत्रा ने ऐसे में अरुण को टैंक से बाहर आने का आदेश दे दिया उधर अरुण तो दुश्मनों के छक्के छुड़ा कर मजे ले रहे थे। कैप्टन से उन्होंने कह दिया कि अभी हमारा टैंक गन काम कर रहा है सर। आई विल गेट दोज…
इतना कहकर अरुण ने रेडियो कनेक्शन को काट दिया। दुश्मनों से वे फिर से लड़ने लगे। इसी दौरान उनके टैंक ने काम करना अचानक बंद कर दिया। वे उससे बाहर नहीं निकल पा रहे थे। अंतिम हमला उन्होंने पाकिस्तान के स्क्वाड्रन कमांडर के टैंक पर कर दिया। अरुण की टैंक से इसी टैंक का एक गोला टकरा गया। पाकिस्तान के कमांडर अपनी टैंक से कूद कर बच गए।
अरुण का टैंक बिल्कुल भी काम नहीं कर रहा था। यह पूरी तरीके से बंद हो चुका था। दुश्मनों को इसका फायदा मिल गया। उन्होंने उन पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी। उनका सीना उन्होंने छलनी कर दिया। टैंक से अरुण खेत्रपाल बाहर नहीं आ सके। वे टैंक के अंदर ही शहीद हो गए।
महज 21 साल की उम्र में अरुण खेत्रपाल ने देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। भारत सरकार ने उन्हें उनकी बहादुरी के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया। पाकिस्तान ने भी उनकी बहादुरी का लोहा माना था। शहीद अरुण खेत्रपाल की बहादुरी और साहस को दुश्मनों ने भी सलाम किया।