अयोध्या में राम मंदिर पर भारतीय जनता पार्टी ने जो संदेश दिया उसके सामने कांग्रेस बहुत पीछे रह गई। जितने अधिक समय तक इसके नेताओं का परस्पर विरोधी नजरिया दिखेगा चाहे ऑफ द रिकॉर्ड हो या ऑन रिकॉर्ड पार्टी की छवि को उतना ज्यादा नुकसान होगा। कुछ कांग्रेसी इस बात पर अड़े हैं कि भारतीय जनता पार्टी को राम मंदिर निर्माण का एकतरफा श्रेय लेने न दिया जाए और वो मंदिर को लेकर अपने दो पूर्व प्रधानमंत्रियों की भूमिका को याद दिलाना चाहते हैं। राजीव गांधी, जिन्होंने 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और इसके 3 साल बाद ‘शिलान्यास’ की अनुमति दी और, पीवी नरसिंहा राव जिन्होंने 6 दिसंबर 1992 के उस दुर्भाग्यपूर्ण रविवार को जब बाबरी मस्जिद ढहायी गयी, तो चुप्पी साध ली। कांग्रेस नेताओं के ये व्यक्तिगत बयान असंगत हैं और इनमें विश्वसनीयता कमी है।
राजीव गांधी या नरसिंहा राव की चूक या उपलब्धियां चाहे जो हों मंदिर पर कोई भी श्रेय लेने की कोशिश से कांग्रेस की बुरी तस्वीर ही सामने आएगी। मंदिर आंदोलन की शुरुआत विश्व हिन्दू परिषद ने की थी और औपचारिक रूप से अयोध्या के कुछ महंतों ने इसका नेतृत्व किया था। भाजपा ने उनका उत्साह बढ़ाया और जब ये दिल्ली की सत्ता तक निर्वाचित होकर पहुंची तो इसने मंदिर के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का फैसला हासिल किया। भाजपा और वीएचपी दोनों ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अग्रिम संगठन हैं और दोनों ने उस जगह पर, जहां कभी बाबरी मस्जिद खड़ी थी, राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन को चलाया है।
अयोध्या के जमीन विवाद पर बीते साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का कांग्रेस ने स्वागत किया था। तीन दशक तक बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद को हल कर पाने में विफल रहने के बाद पार्टी ने इसे न्यायालय पर छोड़ देने का फैसला किया। अब न्यायालय ने इसे तय कर दिया है और जैसा कि अक्सर भारत की अदालतों में होता आया है, फैसले तत्कालीन सरकार के हक में जाते हैं कांग्रेस खुद को पराजित पक्ष के रूप में पेश नहीं कर सकती। उसे इस वास्तविकता को स्वीकार करना होगा और आगे बढ़ना होगा।
किसी राजनीतिक दल को खामोश रहने की आरामदायक सुविधा नहीं होती और कुछ नहीं कहने का विकल्प चुनने का मतलब एक हारी हुई पार्टी की रहस्यमय खामोशी समझी जाएगी। इसी संदर्भ में मध्यप्रदेश कांग्रेस प्रमुख कमलनाथ का बयान राजनीतिक रूप से चतुराई भरा और संतुलित है। उन्होंने मंदिर निर्माण का स्वागत किया और इसे लोगों की बहुत प्रतीक्षित आकांक्षा का पूरा होना बताया। वास्तव में उनका बयान वास्तिवक राजनीति की समझ और सामाजिक सामंजस्य की आवश्यकता को बयां करता है।
कमलनाथ के बयान को आगे बढ़ाते हुए राम मंदिर निर्माण और फिर मुसलमानों के तय की गयी जमीन पर मस्जिद को लेकर पार्टी को आंतरिक चर्चा कर एक रुख लेना चाहिए। अगर मुस्लिम समुदयाय ने अड़े रहने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सामंजस्य बिठा लिया है तब किसी उकसावे वाले रुख पर बने रहने का कांग्रेस के लिए कोई मतलब नहीं बनता है। इसी समझ के साथ शायद कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी ने मंदिर निर्माण का स्वागत किया है।
उन्होंन कहा है कि राम हर किसी से संबद्ध हैं और उम्मीद जतायी है कि मंदिर की शुरुआत से ‘राष्ट्रीय एकता, भाईचारगी और सांस्कृतिक समन्वय’ का अवसर बनेगा। उन्हें और उनकी पार्टी को ऐसी आशाओं से ऊपर उठने की आवश्यकता है। ‘राष्ट्रीय एकता, भाईचारगी और सांस्कृतिक समन्वय’ का मतलब उन लोगों के लिए तकरीबन बिल्कुल उल्टा है जो भारत की धर्मनिरपेक्ष राजनीति का विरोध करते रहे हैं।
कांग्रेस को अपनी स्थिति बहुत स्पष्ट करने की जरूरत है, पहले अपने आप से और फिर अपने समर्थकों से कि सामाजिक सामंजस्य का मतलब राजनीतिक सामंजस्य नहीं होता है। खासकर उन ताकतों से जो बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए जिम्मेदार हैं। राम मंदिर पर सुलह के बयान ऐसे न हों कि ये मुस्लिम समुदाय में पार्टी के प्रतिनिधित्व या फिर भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को चोट पहुंचाए। पार्टी को उन मुद्दों से उलझना होगा जो न केवल मुस्लिम समुदाय से, बल्कि भारतीय संविधान से भी जुड़े हैं।
ये चुनौतियां नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), नेशनल जनसंख्या रजिस्टर और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स लागू करने के भाजपा के एजेंडे से आने वाले बदलाव से संबंधित हैं। इन मुद्दों पर पार्टी को आगे बढ़कर अपना रुख तय करना होगा। सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं, खासकर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को कैद किए जाने का विरोध करते हुए पार्टी को अपनी प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए और उन्हें कानूनी मदद पहुंचानी चाहिए। ये मुद्दे अयोध्या में मंदिर के मुकाबले अधिक बुनियादी हैं और इसलिए इस पर अधिक ध्यान देने और विचार विमर्श की जरूरत है।
कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों का विश्वास खो दिया है, इसलिए नहीं कि वो इससे निराश है बल्कि इसलिए कि पार्टी भाजपा का विकल्प बनती नहीं दिख रही है। मुसलमानों ने अपनी वफादारी उन पार्टियों को समर्पित कर दी है जो उनके स्थानीय हितों की रक्षा प्रभावी तरीके से कर सकती हैं। यूपी में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी या बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और यहां तक कि जनता दल (यूनाइटेड) भी कांग्रेस के मुकाबले उनके लिए बेहतर विकल्प साबित हुए हैं। अविभाजित आंध्र प्रदेश में कांग्रेस पार्टी अलग प्रांत के मुद्दे पर खुद उनसे छिटक गयी। मुस्लिम वोटरों के पास इधर-उधर देखने के सिवा कोई विकल्प नहीं रहा। जहां कहीं भी कांग्रेस दौड़ में रही औसत मुसलमानों ने उसका साथ दिया है।
भाजपा विशेष तौर पर कोर हिन्दुओं के दम पर अस्तित्व में रहेगी क्योंकि भारत की 80 फीसदी आबादी हिन्दू है। दूसरी ओर मुसलमानों की दुनिया छोटी है कुल आबादी का करीब 14 प्रतिशत। बहुसंख्यक समुदाय को खुश करने के लिए कांग्रेस चाहे जो करे, वो हमेशा ही भाजपा से पीछे रहेगी। यहां तक कि मुस्लिम समुदाय जानता है कि उसके लिए चुनाव मैदान में खासतौर से उनकी कोई अपनी राष्ट्रीय पार्टी नहीं हो सकती।
वो जानते हैं कि कांग्रेस के लिए उस राह पर चलना व्यावहारिक नहीं होगा। इसलिए भाजपा से मुकाबले के लिए कांग्रेस खुद को ताकतवर बनाए, इसके जरूरी है कि वो बड़ी जातियों और समुदायों के साथ जुडे और व्यापक रूप अपनाकर धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में हिस्सेदार अल्पसंख्यकों को भी अपने साथ जोड़े।
इस तरह की ताकतों को संगठित करने के लिए ऐसे समझौते और गठबंधन जरूरी हैं मगर तब जब पार्टी की जमीनी स्तर पर पकड़ मजबूत हो। अल्पसंख्यक समेत आम जनता की चिंताओं को लेकर पार्टी की आंखें और कान खुले होने चाहिए और अपनी धर्मनिरपेक्ष और समावेशी नजरिए को बनाए रखते हुए पूरी विश्वसनीयता के साथ कांग्रेस को व्यावहारिक होकर दिखाना होगा।