आरएसएस यानी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर अक्सर चर्चा होती रहती है। आज देश में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के साथ कई महत्वपूर्ण पदों पर आरएसएस के स्वयंसेवक आसीन हैं। आरएसएस को लेकर विभिन्न दलों के राजनेता हमेशा टिप्पणी करते रहते हैं। आरएसएस पर कई तरह के आरोप भी लगते रहे हैं। इनमें से एक आरोप इसका भारत की आजादी की लड़ाई में योगदान नहीं देना भी है।
कई लोग कहते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम में आरएसएस ने भाग नहीं लिया था। वे यह भी कहते हैं कि संघ ने अंग्रेजों भारत छोड़ो कभी नहीं बोला। कई लोगों का कहना है कि आरएसएस ने स्वतंत्रता आंदोलन को भी अपना समर्थन नहीं दिया।
इसे लेकर इतिहासकारों का मत बंटा हुआ है। कई इतिहासकार मानते हैं कि आरएसएस का सचमुच देश की आजादी में कोई योगदान नहीं रहा। उनका कहना है कि इसी वजह से देश की आजादी में आरएसएस नहीं दिखता। कई इतिहासकार कहते हैं कि आरएसएस ने उल्टा अंग्रेजों की मदद की थी।
ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि आरएसएस पर लगने वाले आरोप कितने सही हैं। आरएसएस की स्थापना 1925 में डॉ केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। वे जब नागपुर में नील सिटी हाई स्कूल में पढ़ रहे थे तो उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया था। इसकी वजह यह थी कि उन्होंने स्कूल में वंदे मातरम गाया था।
इस तरह से बचपन से ही वे आजादी की लड़ाई का हिस्सा बन गए थे। लोकमान्य तिलक के स्वराज के विचारों से वे काफी हद तक प्रभावित थे। स्वतंत्रता सेनानियों के समूह अनुशीलन समिति के भी वे एक सदस्य थे।
पत्रकार अरुण आनंद ने अपनी किताब ‘Know About RSS’ में लिखा है कि डॉ हेडगेवार को मई, 1921 में गिरफ्तार कर लिया गया था। उन पर महाराष्ट्र में आपत्तिजनक भाषण देने को लेकर राजद्रोह का आरोप लगा था। मामले की सुनवाई 14 जून, 1921 को शुरू हुई थी। कई सुनवाई के बाद उन्होंने अपना केस खुद से लड़ने का फैसला किया था। 5 अगस्त, 1921 को उन्होंने अदालत में एक लिखित बयान पढ़ा था।
इसे सुनने के बाद न्यायधीश स्मेली ने जो टिप्पणी की थी, वह सुनने लायक है। उन्होंने कहा था कि अपने बचाव में इन्होंने जो कहा, वह असली भाषण से भी ज्यादा राजद्रोही है। 19 अगस्त, 1921 को अदालत का फैसला आया। न्यायाधीश ने डॉ हेडगेवार को एक लिखित अंडरटेकिंग देने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि वे लिखकर दें कि एक साल तक वे ऐसा राजद्रोही भाषण नहीं देंगे। साथ ही 3000 रुपये का बेल बांड भी पेश करने के लिए कहा था।
हेडगेवार की प्रतिक्रिया इस पर अचंभित करने वाली थी। उन्होंने कहा था कि मेरी अंतरात्मा कहती है कि मैं पूरी तरीके से निर्दोष नहीं हूं। सरकार की नीतियां दमनकारी हैं। वह दिन दूर नहीं जब इस देश से विदेशी हुकूमत का उसके पापों की वजह से पत्ता साफ हो जाएगा। मुझे भगवान के न्याय में भरोसा है। इसलिए मुझे जमानत मंजूर नहीं। इसके बाद अदालत ने उन्हें एक साल के सश्रम कारावास की सजा सुना दी थी।
कोर्ट से बाहर आने पर डॉ हेडगेवार ने भीड़ को संबोधित किया था। उन्होंने कहा था कि विदेशी शासकों की दुष्टता को पूरी दुनिया के सामने लाना होगा। यही सच्ची देशभक्ति होगी। यही हमारा कर्तव्य भी है।
हेडगेवार ने एक और महत्वपूर्ण बात कही थी। उन्होंने कहा था कि दूसरे आपको कम देशभक्त कहें तो इसकी परवाह करने की जरूरत नहीं है। चाहे अंडमान भेज दिया जाए या जेल में ठूंस दिया जाए, आजादी के लिए लड़ते रहना है।
कांग्रेस ने संपूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित किया था। 26 जनवरी, 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाने की घोषणा की गई थी। डॉ हेडगेवार ने तब सभी शाखाओं को चिट्ठी लिखी थी। उन्होंने इसमें लिखा था कि कांग्रेस के इस प्रस्ताव से वे खुश हैं।
उन्होंने सभी स्वयंसेवकों से 26 जनवरी, 1930 दिन रविवार को शाम 6 बजे शाखा में आने के लिए कहा था। उन्होंने तब राष्ट्रीय झंडा भगवा ध्वज को फहराने के लिए कहा था। साथ में खुद से पहले आजादी को रखने का महत्व बताने के लिए भी कहा था।
सभी आरएसएस शाखा में तब स्वतंत्रता दिवस मनाया गया था। सत्याग्रह अभियान चलाने के लिए महाराष्ट्र के यवतमाल में उन्हें फिर कारावास में डाल दिया गया था। उन्हें 6 महीने के सश्रम कारावास की सजा मिली थी। साथ में तीन महीने का सामान्य कारावास भी उन्हें दिया गया था।