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सियाचिन ग्लेशियर को लेकर अक्सर चर्चा होती रहती है। एक ओर भारत की सेना तो दूसरी ओर पाकिस्तान की सेना यहां हमेशा आंख गड़ाए बैठी हुई नजर आ जाती है।

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मिडिया ये न भूलें कि रिया अभी आरोपी है अपराधी नहीं

रिया अभी आरोपी है अपराधी नहीं, ये फर्क ना तो मीडिया समझ रहा है और ना सोशल मीडिया पर बक-बक करने वाले लोग। क्योंकि ये फर्क बेहद जरूरी है।
Logic Taranjeet 7 September 2020
मिडिया ये न भूलें कि रिया अभी आरोपी है अपराधी नहीं

सुशांत सिंह राजपूत केस में मीडिया का रोल काफी दिलचस्प रहा है। हां सुशांत केस को जिंदा रखने में सबसे अहम भूमिका मीडिया ने ही निभाई है। लेकिन एक लड़की की जिंदगी को नर्क बनाने वाली भी मीडिया ही है। मुझे रिया से कोई स्नेह नहीं है लेकिन एक महिला के साथ जिस तरह का बर्ताव किया जा रहा है वो सारी मर्यादाएं पार करता जा रहा है।

रिया अभी आरोपी है अपराधी नहीं, ये फर्क ना तो मीडिया समझ रहा है और ना सोशल मीडिया पर बक-बक करने वाले लोग। क्योंकि ये फर्क बेहद जरूरी है। महीनों की जांच में रिया का सुशांत के मर्डर में या आत्महत्या में कोई रोल साफ नहीं हुआ है। ड्रग्स केस में पुछताछ हो रही है और हिरासत में भी रिया ली जा सकती है।

शर्मनाक है मीडिया का बर्ताव

रिया के साथ जो भी कानूनी तरीका है वो अपनाया जाए, कोई परेशानी नहीं है लेकिन नैतिकता को क्यों चीरा जा रहा है। रिया के साथ जिस तरह का बर्ताव मीडिया कर रही है वो बेहद शर्मनाक साबित हो रहा है। कभी कोई चैनल के रिपोर्टर गाड़ी निकल जाने पर गालियां बकते हैं, तो एंकर ड्रग्स दो-ड्रग्स दो चिल्लाते हैं।

एंकरों, संपादकों, रिपोर्टरों की जवाबदेही क्यों नहीं ली जाती है। क्या मीडिया अपने अधिकार का इतना गलत इस्तेमाल कर सकता है कि पूरी तरह से रिया की पर्सनल लाइफ में घुस जाए। रिया के ऊपर दरिंदों की तरह टूटते रिपोर्टर क्या करना चाहते हैं?

मीडिया का ये रवैया देख एक डर लगता है कि कहीं इस बर्ताव से परेशान हो कर रिया सुसाइड ना कर ले। क्योंकि उसकी जांच कौन करेगा और क्या उसके लिए मीडिया जिम्मेदार होगी? रिया के साथ जो करना है वो जांच एजेंसियों और हमारे देश की न्यायपालिका को करना है? क्या टीवी चैनलों पर बैठने वाला पैनल, एंकर और सैंकड़ों रिपोर्टरों की फौज सजा सुनाएगी?

जेसिका लाल केस से तुलना करना बेकार

साल 1999 में जेसिका लाल मर्डर केस में मीडिया ने ही जेसिका की बहन सबरीना लाल का आखिर तक साथ दिया था और 2006 में मनु शर्मा को उम्र कैद की सजा सुनाने तक अहम किरदार निभाया था। तब मनु शर्मा के पिता विनोद शर्मा सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस में एक ताकतवर नेता थे।

इस लड़ाई को आज भी सत्ता के खिलाफ सच के साथ खड़े रहने के उदाहरण के तौर पर याद रखी जाती है। ये वो दौर था जब ‘मीडिया ट्रायल’ और ‘मीडिया एक्टिविज्म’ अक्सर दोषी को सजा दिलाने के लिए काम करते थे और इनकी बुनियाद ठोस पत्रकारिता हुआ करती थी। आज की तरह चौकीदार से लेकर डिलीवरी बॉय तक के मुंह में माइक ठूंसने वाली पत्रकारिता नहीं।

चलिये ये माइक लेकर भागने वाली पत्रकारिता भी समझ में आती है। लेकिन एक लड़की को चारों तरफ से घेर कर वो भी ज्यादातर मर्दों के द्वारा कौन सी पत्रकारिता की जा रही है? ये पत्रकारिता के नाम पर बेहुदगी है। आलम ये हुआ कि महिला आयोग को भी ट्वीट करना पड़ा है और मीडिया को नैतिकता याद दिलाने की बात हुई है।

लेकिन लगता नहीं है कि इसका कोई असर पड़ेगा। यहां मीडिया 1999 वाला रोल नहीं निभा रही है बल्कि एक सर्कस चला रही है, जिसमें मदारी है संपादक और बंदरों की तरह नाच रहे हैं एंकर और रिपोर्टर। बिना किसी तथ्य के हर रोज की कहानी ये दर्शाती है कि मीडिया अपने निचले स्तर पर शायद आ गया है।

महामारी के दौर में बंदर-मदारी का खेल

हमारे देश में महामारी अपने चरम पर है, भुखमरी का वक्त आ रहा है, अर्थव्यवस्था अपने निचले स्तर पर है, बेरोजगारी की बात करना बेवकूफी है। ऐसे माहौल में रिया के पीछे जिस तरह से मीडिया पड़ा हुआ है इसे पागलपन कहा जा सकता है। ये हाल क्यों सरकार से सवाल करते वक्त नहीं होता, तब क्यों सवाल होते हैं कि आपकी एनर्जी का राज क्या है? मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है लेकिन इस स्तंभ में कई दरारें पड़ गई है और अब ये पूरी तरह से गिरने की कगार पर है।

झपटते रिपोर्टरों से कौन बचाए

देश में 90 हजार कोरोना के नए मामले सामने आए उस दिन जिस बहादुरी से संवाददाताओं ने रिया को घेरा, वो हैरान करने वाला है। एक रिया और चारों तरफ से टूट पड़ते रिपोर्टर और उनके असलहे। कोई बाईं ओर से हमलावर और दाईं ओर से झपट्टा मारने को तैयार।

इन चैनलों, उनके संपादकों और उनके कारिंदों ने ऐलान कर दिया है हमें न मुंबई पुलिस की जरूरत है, न सीबीआई की और न ही ईडी की। कोर्ट तो इनकी गिनती में आते ही नहीं, क्योंकि इन्होंने फैसला कर लिया है कि सुशांत केस में फैसला हम ही सुनाएंगे। तारीख पर तारीख भी नहीं कहेंगे और सड़क को ही अपना कठघरा बनाएंगे। स्टूडियो में जिरह होगी और उसमें दूसरा पक्ष भी अपनी पसंद का बुलाएंगे और फिर उन्हें बोलने नहीं देंगे। कोर्ट का काम अब बस इनके फैसले पर मुहर लगाना रह गया है।

दुनिया में कोरोना केस में भारत नंबर दो पर आ गया, जीडीपी जमींदोज, चीन मान नहीं रहा, ये सब टीवी कवरेज और डिबेट के मुद्दे होने चाहिए, जो ये मानते हैं ना उन्हें इस बात की गारंटी भी देनी पड़ेगी कि इन मुद्दों पर टीआरपी भी आएगी। दिखता वही है जो बिकता है। कल को ईडी, सीबीआई, कोर्ट रिया को बेगुनाह बता दे तो इन चैनलों पर चीखते चेहरों पर चीखिएगा मत, क्योंकि आज आपने ही इन चीखों, इस पागलपन पर मुहर लगाई है। और जो लोग इस शोर को चुप कराने के लिए कानून से नियुक्त हैं, उनकी चुप्पी की आंच कल उन्हीं के घर तक आए तो उनका चीखना भी अनसुना हो सकता है।

बेहुदगी है रिया के साथ होने वाला बर्ताव

रिया के साथ जिस तरह का सलूक किया जा रहा है उसकी वीडियो देख कर परेशानी होती है। साथ ही गुस्सा भी आता है कि किस तरह एक लड़की जो आरोपी है अपराधी भी नहीं, उसके साथ इस तरह का व्यव्हार किया जा रहा है। क्या जुर्म है रिया का आखिर अभी तक किस आरोप में उसे सजा दी गई है।

जो उसका करियर खराब किया जा रहा है अगर कल को रिया बेगुनाह निकली तो क्या ये मीडिया उसका करियर संभालेगी। तब तो अपना पल्ला झाड़ कर भाग लेंगे किसी और ब्रेकिंग न्यूज के पीछे और स्टूडियो में नाच गाना शुरु कर देंगे। लेकिन किसी की जिंदगी को इतना तबाह भी मत करिये कि कल को वो जिंदा रहने लायक ही ना रहे।

Taranjeet

Taranjeet

A writer, poet, artist, anchor and journalist.