कुछ ही महीनों बाद पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं इसलिए तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों ही कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। भाजपा की ओर से, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और पार्टी के बंगाल अध्यक्ष दिलीप घोष अपने तीखे बोल जारी रखे हुए हैं। तो वहीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर टीएमसी के पुनर्गठन के साथ उन्हें चुनौती दे रहे हैं।
किसकी रणनीति कामयाब रहेगी कहना मुश्किल है। अमित शाह ने जहां 294 सदस्यों वाली विधानसभा में भाजपा को 200 से अधिक सीटें मिलने का दावा किया है, तो वहीं प्रशांत किशोर ने उनके दावे को चुनौती देते हुए ऐलान किया कि अगर भाजपा दो अंकों के आंकड़े को ही पार कर जाए तो वो राजनीति छोड़ देंगे।
भाजपा हिंदुत्व, बांग्लादेशी घुसपैठियों यानि मुस्लिमों, बदला लेने की बात और अभिषेक बनर्जी के लिए अपशब्दों से भरी बयानबाजी पर केंद्रित अपनी राजनीति कर रही है। तो वहीं टीएमसी एक अलग खेल में जुटी है। वो विकास की और सरकार द्वारा निरंतर जनता के दरवाजे तक सेवाएं उपलब्ध कराने की बात उठा रही है।
महिला सशक्तिकरण, रोजगार सृजन, स्वास्थ्य, सामुदायिक विकास और बालिका शिक्षा पर केंद्रित 11 प्रमुख कल्याणकारी योजनाओं के साथ, टीएमसी बंगाल के मतदाताओं को अपने विकास कार्यक्रमों के आधार पर लुभाने की कोशिश कर रही है। चुनाव अभियान में इन दोनों ही रणनीतियों को जमकर उछाला जा रहा है और कौनसी सफल रहती है ये अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।
पश्चिम बंगाल विचारधाराओं के लिहाज से एक दिलचस्प राज्य है। यहां पर जनता हर दो दशक बाद अपनी बुनियादी राजनीतिक रुझान को नाटकीय रूप से बदल लेती है। जहां 1970 और 80 के दशकों में यहां वामपंथियों का वर्चस्व था, तो वहीं 1990 और 2000 के दशकों में कांग्रेस-टीएमसी के मध्यमार्गी विचारों का सिक्का चला। लेकिन अब, लगता है बंगाल की सामूहिक राजनीतिक सोच ने दक्षिणपंथ की ओर एक तेज करवट ले ली है।
2019 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर ममता बनर्जी के जबरदस्त जुबानी हमलों के बावजूद भाजपा के वोट शेयर में भारी बढ़त हुई। लेकिन अपने वोट बैंक पर ममता बनर्जी की पकड़ को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। उनकी पार्टी 2019 में 43.3 प्रतिशत वोट शेयर पर अपना कब्जा बनाए रखने में कामयाब रही थी। वो भी तब जबकि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता चरम पर थी।
टीएमसी की अपनी कई कमजोरियां हैं। भाजपा जहां गांधी परिवार और अब बनर्जी परिवार के सताए नेताओं के लिए एक अनुकूल विकल्प होने पर गर्व करती है, टीएमसी में ऐसे नेताओं की भरमार है जो पार्टी मामलों की जिम्मेदारी अभिषेक बनर्जी और प्रशांत किशोर के हाथों में जाने से असंतुष्ट हैं। पहले से ही मुकुल रॉय, सोवन चटर्जी और सुवेंदु अधकारी जैसे बड़े वोट जुटाऊ नेता टीएमसी छोड़ चुके हैं। भाजपा ने राहुल गांधी की ही तरह अभिषेक को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
भाजपा भी अपनी कमजोरी को छुपा नहीं पाई है। जहां भाजपा समर्थक मीडिया टीएमसी छोड़ भाजपा की शरण में जाने वाले नेताओं की बात करते थक नहीं रहा है, तो वहीं कोई भी उस व्यक्ति का उल्लेख नहीं करना चाहता जिसका 2019 में राज्य में भाजपा की जीत में सबसे बड़ा योगदान था। जो गोरखा नेता बिमल गुरुंग थे। उनके गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन का साथ छोड़कर दोबारा टीएमसी का दामन थाम लिया है। उत्तर बंगाल की आठ लोकसभा सीटों में से सात पर 2019 में भाजपा को जीत दिलाने वाले गुरुंग ने आगामी चुनाव में भाजपा को सबक सिखाने की कसम खाई है।
एक और बात जो भाजपा के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है वो है साथ ही असम में विधानसभा चुनाव होना। अमित शाह सहित भाजपा के नेता 2019 से ही पश्चिम बंगाल में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) लागू करने की बात करते रहे हैं। लेकिन अब इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं किया जा रहा।
गुजरातियों का बंगाली अभिमान भी एक दिलचस्प पहलू है. जहां नरेंद्र मोदी स्पष्टतया रवींद्रनाथ टैगोर की छवि में खुद को ढाल रहे हैं, तो वहीं भाजपा के स्टार प्रचारकों की भाषा टीएमसी के मुकाबले एक कमजोर पक्ष है। जहां तृणमूल के सारे नेता स्थानीय और खांटी बंगाली हैं, तो वहीं भाजपा बंगालियों को उनकी संस्कृति को बढ़ावा देने का आश्वासन के लिए पूरी तरह से दो गुजरातियों पर निर्भर है। ये उन्हीं लोगों में से हैं, जो कि दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत में हिंदी थोपने के लिए जाने जाते हैं।