सरकार और किसानों के बीच में 8 बार कृषि कानून को लेकर चर्चा हो गई है। और हर बार अलग तारीख मिल जाती है, जब लगता है कि हां इस बार फैसला हो जाएगा किसानों की मांगें मान ली जाएंगी महीने भर से ऊपर से प्रदर्शन कर रहे किसान अपने घर को लौट जाएंगे। तब घंटों की मुलाकात के बाद सुनने को मिलता है कि बैठक बेनतीजा निकली अगली तारीख दे दी गई है। दरअसल अब कहा जा सकता है कि ये होता रहेगा क्योंकि सरकार चाहती ही नहीं है कि कोई हल निकले, तो फिर तारीख पर तारीख ही मिलती रहेगी।
सरकार इतने वक्त के बाद भी अपने कानून वापिस लेने की जगह पर विकल्प तलाश रही है। वहीं पहले दिन से ही किसान संगठन इस मांग पर अढ़े हैं कि तीनों कानून वापिस ही लेने होंगे। सरकार किसानों को संशोधन पर मनाने की कोशिश में लगे हुए हैं लेकिन वहीं किसानों ने पूरी तरह से साफ किया हुआ है कि तीनों कानूनों को वापस लिए जाने से कम इन किसान संगठन के नेताओं को कुछ भी मंजूर नहीं है।
8वीं दौर की बातचीत में भी कोई नतीजा नहीं निकला है। इसकी सूचना देते हुए केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि किसान नेताओं के साथ वार्ता में कोई फैसला नहीं हुआ, क्योंकि किसान संगठनों ने नए कृषि कानून को वापस लेने की अपनी मांग का कोई विकल्प नहीं दिया है।
उन्होंने कहा कि सरकार तब तक कुछ नहीं कर सकती, जब तक कि किसान संगठन नए कानूनों को वापस लेने की अपनी मांग का विकल्प नहीं देते हैं। एक बार फिर उन्होंने दोहराया कि कई संगठन इन कानूनों का समर्थन कर रहे हैं। हालांकि अब तक ऐसे कोई भी प्रभावी और वास्तविक किसान संगठन सामने नहीं आए हैं जिन्होंने सरकार के इन तीनों कानूनों का समर्थन किया हो।
पिछले दिनों कृषि मंत्री ने जिन संगठनों के समर्थन की चिट्ठियों का ट्वीट किया था, उनमें लगभग सभी संगठन या नेता भाजपा और आरएसएस से ही किसी न किसी रूप में जुड़े हुए निकले। या फिर उनका किसानों से कोई वास्ता ही नहीं रहा है। जबकि सरकार से बात कर रहे 40 संगठनों के नेताओं का ये दावा है कि वो 450 से भी ज्यादा किसान संगठनों के प्रतिनिधि हैं।
किसानों ने पहले ही साफ कर दिया था कि बात होगी तो सिर्फ कानून वापस लेने की, लेकिन जैसा अंदेशा था कि सरकार भी अपना वही रवैया बरकरार रखते हुए संशोधन की बात ही दोहराएगी, वही हुआ। अब 9वें दौर की बातचीत की तारीख दी गई है। वहीं उससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले की सुनवाई करनी है, जो कि 11 जनवरी को है और सरकार 15 जनवरी को किसानों से बात करेगी ताकि वो पहले समझ ले कि कोर्ट का रुख किस तरफ जा रहा है।
हालांकि आंदोलन कर रहे किसान संगठन इस मामले में कोर्ट में कोई पार्टी यानी कोई पक्ष नहीं है, लेकिन किसानों के नाम पर कुछ लोग और सरकार कोर्ट गए हैं। हो सकता है कि 11 जनवरी को कोर्ट इस पूरे आंदोलन पर कोई दिशा निर्देश जारी कर दे। क्योंकि कोर्च कोरोना की वजह से आंदोलन को लेकर पहले से ही चिंतित है।
देश भर के किसान अपनी मांगों को लेकर दिल्ली की सीमाओं पर पिछले डेढ महीने से बैठे हैं। किसानों का मानना है कि पहले से ही बदहाल किसान इन नए कृषि कानूनों के आने से और बदहाल और मजबूर हो जाएगा। प्राइवेट मंडिया खुलने से उसे एपीएमसी की मंडिया बंद होने का खतरा है तो कॉन्ट्रेक्ट फॉर्मिंग से अपनी जमीन जाने का खतरा है।
आवश्यक वस्तु अधिनियम में छूट देने से कालाबाजारी बढ़ेगी जिससे आम उपभोक्ता को भी नुकसान होगा। कुल मिलाकर किसानों की समझ है कि ये कानून कॉरपोरेट को लाभ पहुंचाने के लिए लाए गए हैं और उसे गुलामी की ओर धकेल देंगे। यही नहीं आम जनता भी महंगाई से परेशान हो जाएगी। इसलिए किसान इन कानूनों को वापस लेने के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग कर रहा है।
बार-बार वार्ता विफल होने के चलते किसानों ने अपना दबाव बढ़ाते हुए किसानों ने दिल्ली के चारों तरफ ट्रैक्टर मार्च भी निकाला। और 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली के भीतर ट्रैक्टर मार्च करने का ऐलान किया है। इस बीच भी जागरूकता और एकजुटता के लिए कई कार्यक्रम तय हैं। कुल मिलाकर किसान अपने संकल्प और एकजुटता से सरकार पर लगातार दबाव बढ़ा रहे हैं, लेकिन सरकार फिलहाल कानून वापस लेने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं दिख रही है। ऐसे में आने वाले दिन और संघर्ष और तनाव भरे रहने वाले हैं।