उत्तर प्रदेश की राजनीति देश में बड़ी मायने रखती है। आज भले ही कांगेस की स्थिति यहां उतनी अच्छी न हो, मगर एक वक्त यहां कांग्रेस की तूती बोलती थी। कांग्रेस में एक हेमवती नंदन बहुगुणा के नाम से भी नेता हुए थे, जिन्हें कांग्रेस का चाणक्य कहा जाता था। वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे थे और केंद्र में मंत्री भी। हेमवती नंदन बहुगुणा की राजनीति में आने की रुचि लाल बहादुर शास्त्री से मिलने के बाद जगी थी।
एक वक्त ऐसा भी आया था, जब 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी भूमिका की वजह से अंग्रेजों को पर जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए पांच हजार रुपये का इनाम तक रखना पड़ा था। आजादी के बाद से ही कांग्रेस में अपनी धनक पैदा करने वाले हेमवती का कद पार्टी में बढ़ता ही चला गया और 1957 में पार्टी ने उन्हें पहले पार्लियामेंट्री सेक्रेटरी, फिर 1958 में श्रम व उद्योग विभाग का उपमंत्री, फिर 1963 से 1969 तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस महासचिव और 1967 में अखिल भारतीय कांग्रेस का महामंत्री भी बनाया।
ऐसे बने मुख्यमंत्री
वर्ष 1969 में चरण सिंह के कांग्रेस से अलग होने के बाद कांग्रेस में दो फाड़ हो गया, मगर फिर भी कमलापति त्रिपाठी और हेमवती नंदन बहुगुणा इंदिरा गांधी के साथ ही खड़े रहे। जब पत्रकार रामकृष्ण द्विवेदी के हाथों मुख्यमंत्री त्रिभुवन सिंह हारे तो कमलापति त्रिपाठी मुख्यमंत्री बने, मगर भ्रष्टाचार के आरोप और पीएसी विद्रोह के कारण जब इन्होंने इस्तीफा दिया तो आखिरकार हेमवती नंदन बहुगुणा को मुख्यमंत्री बना दिया गया और यूपी की शासन व्यवस्था को पटरी पर लाने में भी वे कामयाब हो गये। कमलापति का भी इन्हें इसके लिए समर्थन मिला था और यह भी कहा जाता है कि अपने पिता के अतिरिक्त हेमवती नंदन बहुगुणा केवल उन्हीं के पैर भी छूते थे।
कांग्रेस से बाहर और फिर अंदर
हेमवती नंदन बहुगुणा कांग्रेस के उन नेताओं में से रहे, जो इंदिरा गांधी की 1975 में लगाये गये आपातकाल के विरोध में थे। इंदिरा गांधी से मनमुटाव होने पर उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी भी छोड़ दी थी और 1977 के लोकसभा चुनाव के वक्त कांग्रेस से बगावत करके पूर्व में रक्षा मंत्री रह चुके जगजीवन राम के साथ मिलकर कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी पार्टी नामक पार्टी बनाकर लोकसभा चुनाव भी उन्होंने लड़ लिया। 28 सीटें जीतने के बाद उनकी पार्टी का जनता दल में बाद में विलय हो गया। इस तरह से चैधरी चरण सिंह की सरकार में वे वित्त मंत्री भी बने थे। आपातकाल के विरोध में जयप्रकाश नारायण की क्रांति का विरोध नहीं करने से नारायण ने यूपी सरकार के विरुद्ध कोई प्रदर्शन भी नहीं किया था। जब जनता दल बिखरने लगा तो 1980 में बहुगुणा की कांग्रेस में घर वापसी हो गई और गढ़वाल से वे लोकसभा चुनाव जीत गये।
अमिताभ बच्चन से सामना
इंदिरा गांधी को तो बदला लेना ही था। इसलिए कांग्रेस की सरकार बनने पर बहुगुणा को उन्होंने कैबिनेट में जगह ही नहीं दी, जिससे नाराज होकर न केवल कांग्रेस, बल्कि लोकसभा की सदस्यता से भी बहुगुणा ने इस्तीफा दे दिया और 1982 में इलाहाबाद से उपचुनाव जीत गये। हालांकि, 1984 में उनके लिए बड़ी चुनौती पैदा हो गई, जब अमिताभ बच्चन को राजीव गांधी ने इलाहाबाद से लोकसभा चुनाव के लिए अपना प्रत्याशी बना दिया। बहुगुणा का कद उस वक्त अमिताभ के मुकाबले कहीं अधिक बड़ा था और उन्होंने अमिताभ के खिलाफ चुनाव प्रचार तक किया था। उस वक्त हेमवती नंदन इलाहाबाद का चंदन, सरल नहीं संसद में आना, मारो ठुमका गाओ गाना और दम नहीं है पंजे में, लंबू फंसा शिकंजे में जैसे नारों का इस्तेमाल अमिताभ बच्चन के खिलाफ चुनाव प्रचार में किया गया था।
सबकुछ हुआ खत्म
अमिताभ बच्चन एक तो इलाहाबाद के स्थानीय निवासी रहे थे और ऊपर से फिल्म अभिनेता के तौर पर उनकी लोकप्रियता थी। ऐसे में उन्होंने इस चुनाव में हेमवती नंदन बहुगुणा को एक लाख 87 हजार वोटों के भारी अंतर से हरा दिया, जिसके बाद तो बहुगुणा के पैरों तले जमीन ही खिसक गई। कांग्रेस से इस्तीफा देकर जो वे लोकदल में शामिल हुए थे, वहां उस वक्त शरद यादव व देवीलाल जैसे नेताओं द्वारा गंभीर आरोप लगाने के बाद वे इतने अधिक आहत हो गये कि उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का ही निर्णय ले लिया। इस तरह से राजनीति के धुरंधर बहुगुणा के राजनीतिक करियर को एक तरह से अमिताभ बच्चन ने खत्म कर डाला। बाद में कुछ समय तक बहुगुणा पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करते रहे। करीब तीन साल के बाद बोफोर्स में नाम आने पर दुखी होकर अमिताभ बच्चन ने भी इस्तीफा देकर राजनीति से दूरी बना ली। हालांकि, इसी दौरान हेमवती नंदन बहुगुणा ने भी दुनिया को अलविदा कह दिया।