अटल बिहारी वाजपेयी को भारत की राजनीति का अजातशत्रु भी कहा जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी के जैसा बनना हर किसी नेता की चाहत होती है। वाजपेयी के जैसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री भारत में बहुत कम ही हुए हैं। पांच साल प्रधानमंत्री के तौर पर पूरा करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी भारत के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री रहे। जब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 1942 में वाजपेयी के भाई 23 दिनों के लिए जेल चले गए थे, उसी वक्त भारत की राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी का पदार्पण हुआ था।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोग से वर्ष 1951 में जब भारतीय जनसंघ का गठन हुआ था तो उस वक्त इसके गठन में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ वाजपेयी की भी भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही थी। अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे भारत के एकमात्र ऐसे राजनेता रहे, जिन्होंने चार राज्यों की छः लोकसभा क्षेत्रों से अलग-अलग लोकसभा चुनावों में जीत हासिल की। भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी उत्तर प्रदेश के लखनऊ और बलरामपुर के साथ मध्य प्रदेश के ग्वालियर, गुजरात के गांधीनगर और विदिशा एवं दिल्ली की नई दिल्ली संसदीय सीट से भी लोकसभा में पहुंचे थे।
अटल बिहारी वाजपेयी में कुछ तो बात थी, तभी तो वह पार्टी जिसके पास कभी केवल 2 सीटें ही थीं, उस पार्टी का एक नेता आगे चलकर देश का प्रधानमंत्री बन गया। वाजपेयी की भारत की राजनीति में क्या अहमियत थी, उनकी क्या लोकप्रियता थी और उनकी कैसी स्वीकार्यता थी, इसी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अच्छी तरह से भांप लिया था। तभी तो लालकृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेता को दरकिनार करते हुए प्रधानमंत्री के लिए RSS ने वाजपेयी का नाम आगे बढ़ा दिया था। वाजपेयी के राजनीतिक जीवन से जुड़े किस्से तो बहुत हैं, लेकिन एक किस्सा ऐसा है, जिसे याद करना जरूरी हो जाता है। इस किस्से को विशेषकर मथुरा के लोग तो शायद ही कभी भुला पाएंगे।
पहली बार जब वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री बने तो वे केवल 13 दिनों तक ही रह पाए। इसके बाद फिर से प्रधानमंत्री बने तो इस बार उन्होंने 13 महीने तक सरकार चलाई, मगर तीसरी बार जब वे फिर से 1999 में भारत के प्रधानमंत्री चुन लिए गए तो इस बार वे 2004 तक प्रधानमंत्री रहे और अपना कार्यकाल भी पूरा किया। अटल बिहारी वाजपेयी ने जिस तरह से सरकार चलाई, उन्होंने इससे साबित कर दिया कि गठबंधन सरकारों को भी इस देश में कामयाबी हासिल हो सकती है। इतने लोकप्रिय नेता होते हुए भी अटल बिहारी वाजपेयी एक बार चुनाव में इस कदर हारे थे कि उनकी जमानत तक जब्त हो गई थी। जी हां, अटल बिहारी वाजपेयी को इस चुनाव में चौथा स्थान हासिल हुआ था।
यह वक्त था 1957 का जब देश दूसरे लोकसभा चुनाव का साक्षी बन रहा था। अटल बिहारी वाजपेयी भी चुनाव लड़ने के लिए मैदान में जनसंघ के टिकट पर उतर गए थे। तीन सीटों पर वाजपेयी अपनी किस्मत आजमा रहे थे। जिन तीन सीटों से वे चुनाव लड़ रहे थे, वे उत्तर प्रदेश की बलरामपुर, मथुरा और लखनऊ सीटें थीं। इन्हीं सीटों से उन्होंने अपना नामांकन दाखिल किया था। वाजपेयी को इस चुनाव में बलरामपुर से जीत जरूर मिल गई थी, लेकिन उन्हें उसी लखनऊ से हार का मुंह देखना पड़ा था, बाद में जहां से वे सांसद बनते रहे थे। दूसरी तरफ मथुरा लोकसभा सीट पर तो उन्हें ऐसी हार मिली कि उनकी जमानत ही जब्त हो गई थी।
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि मथुरा सीट से भले ही अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव लड़ रहे थे, लेकिन इस चुनाव में वे यहां से जानबूझकर हार गए थे। जी हां, अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ चुनाव मैदान में मुरसान रियासत के राजा महेंद्र प्रताप सिंह उतरे हुए थे। अटल बिहारी वाजपेयी न केवल उनसे चुनाव हार गए थे, बल्कि चुनाव प्रचार के दौरान वे अपने विरोधी महेंद्र प्रताप सिंह के लिए वोट भी मांग रहे थे। राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। एक क्रांतिकारी के तौर पर देश की आजादी में उनका बड़ा योगदान रहा था। शायद यही वजह थी कि अटल बिहारी वाजपेयी ने विरोधी होने के बाद भी उनके लिए चुनाव प्रचार किया था।
मथुरा में चुनाव प्रचार के दौरान वाजपेयी यहां के लोगों से कह रहे थे कि आप जो मुझे प्यार दे रहे हैं, वह अभूतपूर्व है। बलरामपुर से भी मैं चुनाव लड़ रहा हूं। आपका आशीर्वाद रहा तो जीत भी जाऊंगा, लेकिन मेरी चाहत है कि मथुरा से आप जिताएं राजा महेंद्र प्रताप को ही। चुनाव परिणाम आए तो वाजपेयी बलरामपुर से जीत भी गएम लखनऊ से हारे और मथुरा में तो उनकी जमानत ही जब्त हो गई। इस चुनाव में उन्हें मथुरा में 23 हजार 620 वोट हासिल हुए थे।