बिहार में एक बार फिर से नीतीश कुमार की सरकार बन गई, अब कुछ महीनों के बाद बंगाल में चुनाव है। जहां पर मुकाबला थोड़ा टेड़ा है। बिहार में तो सीधा दो पक्षों में मुकाबला था, लेकिन बंगाल में ऐसा नहीं है। जहां एक तरफ बंगाल में ममता दीदी अपनी 10 सालों की सरकार बचाने में लगी है, तो वहीं इस किले को जीतने के लिए भाजपा अपनी पूरी ताकत लगाने को तैयार है। लेकिन ऐसे में लेफ्ट-कांग्रेस भी गठबंधन कर तीसरा मोर्चा बना रहे हैं। बंगाल विधानसभा चुनाव में कूदने वाले सभी राजनीतिक दलों और नेताओं की नजरें बिहार पर थी और इस चुनाव से काफी दलों और नेताओं ने सीख ली है।
इस वक्त भाजपा का परचम बुलंद है क्योंकि साल 2019 में लोकसभा चुनाव में वो ममता के गढ़ में सेंधमारी कर चुकी है। पश्चिम बंगाल के चुनावों से बिहार चुनावों का भी काफी ताल्लुक है।
बिहार चुनावों की सबसे बड़ी सीख ये है कि मुख्यमंत्री नितीश कुमार की जनता दल (युनाइडेट) तीसरे नंबर पर रही है और गठबंधन के अपने जूनियर पार्टनर भाजपा से भी पीछे रही। ये साफ है कि बिहार में गठबंधन के मुख्यमंत्री चेहरा नीतीश कुमार के खिलाफ हवा बह रही थी लेकिन लॉकडाउन में केंद्र सरकार की नाकामी, प्रवासियों का संकट, बेरोजगारी, आर्थिक अटकाव का भाजपा के वोटों पर असर नहीं हुआ।
बिहार के चुनावों ने ये भी दर्शाया है कि जब लेफ्ट जमीनी स्तर के मुद्दों पर टिका रहता है, उसे चुनावों में फायदा होता है। उसे बिहार में 29 सीटों पर लड़ने का मौका मिला और उसने 16 पर जीत हासिल की। युवा चेहरों और जमीनी स्तर के आंदोलनों की हिमायत ने उसे जीत दिलाई और इससे साफ होता है कि बंगाल में भी, जहां लेफ्ट का बड़ा संगठनात्मक आधार और कैडर है, लाल सलाम की गूंज एक बार फिर से सुनाई दे सकती है।
बंगाल विधानसभा चुनाव में लेफ्ट को अपना संगठन मजबूत करना होगा। उसे नए और भरोसेमंद चेहरों के जरिए युवाओं के बीच में अपने आधार को भी मजबूत करना होगा। भाजपा धार्मिक ध्रुवीकरण पर ध्यान लगाएगी और तृणमूल सेकुलरिज्म और सॉफ्ट हिंदुत्व पर इसलिए पॉलिसी के आधार पर कैंपेन चलाने के लिए काफी स्कोप है जिसका पूरा फायदा लेफ्ट और कांग्रेस ले सकते हैं। 2019 के चुनावों में राज्य में बहुत से लेफ्ट वोटर्स ने ममता बनर्जी को न चुनकर भाजपा को वोट दिया था। ऐसे में लेफ्ट को वो जगह वापस हासिल करनी है, न सिर्फ चुनावों के लिए, बल्कि राज्य में अपने पुनर्जीवन के लिए भी।
बिहार चुनावों में मुसलमान, दलित और ओबीसी वोटों ने बड़ी भूमिका निभाई है। बिहार में मुसलमान 16.9 प्रतिशत हैं, जबकि बंगाल में उनकी संख्या 27 प्रतिशत है। इसलिए तृणमूल को इस बात से तसल्ली मिल सकती है कि बिहार में मुसलमान महागठबंधन के साथ गए थे, क्योंकि ममता की ही तरह, उसकी केंद्रीय पहचान मुसलमानों पर मेहरबान होने की है। लेकिन एआईएमआईएम का उठान तृणमूल के लिए चिंता का सबब बन सकता है। हाल ही में असदुद्दीन ओवैसी ने बंगाल के चुनावी रण में कूदने का ऐलान किया है।
एआईएमआईएम ने बिहार के सीमांचल क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन किया है जोकि बंगाल की सीमा से लगता हुआ क्षेत्र है और वहां पर बंगाली मूल के बहुत से मुसलमान बसे हुए हैं। इससे बंगाल के आसपास के जिलों में तृणमूल के लिए खतरा पैदा हो सकता है। भाजपा के प्रति बिहार में मतदाताओं का जो रवैया रहा, वो 2016 में तृणमूल कांग्रेस के प्रति बंगाली मतदाताओं के रवैये की याद दिलाता है। तब बड़ी फ्लाईओवर दुर्घटना और नारदा टेप्स के लीक होने के बाद भी तृणमूल बड़े बहुमत से वापस सत्ता में लौटी थी। करोड़ों के सारदा घोटाले में तृणमूल के बड़े नेताओं के शामिल होने के आरोपों के बावजूद पार्टी को नुकसान नहीं हुआ था हालांकि इस बार तृणमूल को एक मजबूत, अधिक संगठित विपक्ष से मुकाबला करना पड़ रहा है।
ये साफ है कि भाजपा और तृणमूल दोनों, इन चुनावों को मोदी बनाम ममता की लड़ाई बनाना चाहते हैं और दोनों पार्टियां पर्सनैलिटी पावर पर दांव लगाना चाहती हैं। हालांकि बिहार ने साबित किया है कि विधानसभा चुनावों में जनता केंद्रीय नहीं, राज्य स्तरीय मुद्दों पर वोट देती है। तृणमूल ने ये भांप लिया है और वो ममता की अच्छे कामों, और नीतियों का प्रचार करने में जुटी है। साथ ही ये प्रचार भी कर रही है कि कैसे मोदी ने बंगाल विधानसभा चुनाव के साथ अन्याय किया है। क्योंकि ममता ने किसी पार्टी के साथ कोई गठबंधन नहीं किया है, इसलिए वो स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करेंगी और केंद्र में मोदी सरकार पर हल्ला बोलती रहेंगी।
जैसे बिहार में भाजपा के पास कोई मुख्यमंत्री चेहरा नहीं था, बंगाल में भी उसके पास ममता को टक्कर देने वाला कोई चेहरा नहीं है। इसलिए भाजपा मोदी और शाह की जोड़ी को उतारेगी और सरकार विरोधी अभियान छेड़ेगी। गृह मंत्री अमित शाह खुद बंगाल में पार्टी के लिए प्रचार कर रहे हैं और ये बिहार से एकदम अलग है, जहां पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा ने मोर्चा संभाला था। वैसे पश्चिम बंगाल में भाजपा के लिए लेफ्ट-कांग्रेस भी परेशानी पैदा कर सकते हैं जोकि सरकार विरोधी वोटों को बांटने का काम करेंगे।
भाजपा से टक्कर तगड़ी है तो तृणमूल को भी हिंदुओं के बीच लोकप्रियता हासिल करने को मजबूर होना पड़ रहा है। हाल ही में पार्टी ने गरीब पुजारियों को घर और भत्ते देने की घोषणा की थी। ऐसे में अगर लेफ्ट एक साथ लड़ती है, या एआईएमआईएम जैसी पार्टी कुछ सीटों पर चुनाव लड़ रही है, तो दोनों ही तृणमूल के मुसलमान वोट छीन सकते हैं। तृणमूल की हालत, इस समय दो धारी तलवार पर चलने जैसी है। उसे भाजपा को पूरी तरह से हिंदू वोट बोटरने से रोकना है, साथ ही ये भी तय करना है कि मुसलमानों को कोई दूसरा बेहतर विकल्प न दिखाई देने लगे।
पहले महिला वोटरों का झुकाव तृणमूल की तरफ था, और पार्टी ने उनके बीच जीत हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत भी की थी। कन्याश्री और रूपाश्री ममता सरकार की फ्लैगशिप स्कीम्स हैं और इनकी बदौलत 2016 और 2019 में महिला वोटर्स ने तृणमूल को फायदा पहुंचाया था। भले ही भाजपा ने दूसरे मतदाता समूहों में अपनी जगह बनाई हो, महिला वोट अब भी तृणमूल के साथ हैं और अगर भाजपा बंगाल विधानसभा चुनाव में भी बिहार सरीखी जीत हासिल करना चाहती है तो उसे ये समझना होगा कि किस तरह महिला वोटर चुनावों को प्रभावित करते हैं और बंगाल में इस पर ध्यान केंद्रित करना होगा।