श्रीमद भागवद गीता दुनिया के चंद ग्रंथों में से एक है जो आज भी सबसे अधिक पढ़े जाते हैं और जीवन पथ पर कर्मों और नियमों पर चलने की हमें प्रेरणा देते हैं। गीता हिन्दुओं में सर्वोच्च माना जाता है, वहीं विदेशियों के लिए आज भी यह शोध का विषय बना हुआ है। इसके 18 अध्यायों के करीब 700 श्लोकों में हर उस समस्या का समाधान मिल जाता है जो कभी न कभी हर इंसान के सामने खड़ी हो जाती है। यदि हम इसके श्लोकों का अध्ययन रोज करें तो हम आने वाली हर समस्या का हल बगैर किसी मदद के निकाल सकते हैं।आज हम गीता के उन्हीं सूत्रों से आपको कुछ बातें बताने जा रहे है जो हर मोड़ पर हमें आने वाली समस्याओं से निपटने की प्रेरणा देंगी।
भागवत महात्म्य के आरंभ में सबसे पहले लिखा है-सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।।
ये पहला श्लोक है भागवत का। प्रथम श्लोक का प्रथम शब्द है सच्चिदानंदरूपाय। भागवत आरंभ हो रहा है और भागवत ने घोषणा की सत, चित और आनंद। भगवान के तीन रूप हैं सच्चिदानंद रूपाय सत, चित और आनंद। भगवान के रूप को प्रकट किया। भगवान तक पहुंचने के तीन मार्ग है सत, चित और आनंद। इन तीन रास्तों से आप भगवान तक पहुंच सकते हैं।
भगवान कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य को बिना फल की इच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा और ईमानदारी से करना चाहिए। यदि कर्म करते वक्त फल की इच्छा मन में हो तो आप पूर्ण निष्ठा के साथ वह कर्म नहीं कर पाएंगे निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ रिजल्ट देता है। इसलिए बिना किसी फल की इच्छा से मन लगाकर अपना काम करते रहना चाहिए। फल देना, न देना व कितना देना ये सभी बातें परमात्मा पर छोड़ दो क्योंकि परमात्मा ही सभी का पालनकर्ता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि, धर्म का अर्थ कर्तव्य से है। अक्सर हम कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ और मंदिरों को ही धर्म समझ बैठते हैं। हमारे ग्रंथों ने कर्तव्य को ही धर्म बताया है|
अपने कर्तव्यों को पूरा करने में कभी अपयश-यश और लाभ-हानि का विचार नहीं करना। अपने दिमाग़ को सिर्फ अपने कर्तव्य पर एकाग्र करके काम करना चाहिए। इससे मन में शांति रहेगी और अच्छा परिणाम मिलेगा। आज युवा अपने कर्तव्यों में लाभ-हानि को सोचते रह ते है। तो सोचते ही रह जाएंगे,कई बार वह तात्कालिक नुकसान देख काम को ही टाल देते हैं, फिर बाद में उनको उससे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता है।
हर व्यक्ति चाहता है कि वह सुखी है। सुख की तलाश में वह भटकता रहता है। लेकिन, सुख का मूल तो उसके मन में ही है। जिस मनुष्य का मन इंद्रियों, धन, वासना और आलस्य में लिप्त रहेगा तो उस व्यक्ति के मन में भावना नहीं हो सकती। इसलिए सुख प्राप्त करने के लिए अपने मन पर नियंत्रण बेहद जरूरी है।
ये कांपीटिशन का दौर है, हर इंसान को पहले स्थान पर ही रहना है । ऐसे में ज्यादातर संस्थानों में ये होता है कि कुछ चतुर छात्र अपना काम तो पूरा कर लेते हैं, लेकिन अपने साथी को उसी काम को टालने के लिए प्रोत्साहित करते हैं अथवा काम के प्रति उसके मन में लापरवाही का भाव भरने लगते हैं। श्रेष्ठ छात्र वही होता है जो अपने काम से दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन जाता है। संस्थान में उसी छात्र का भविष्य सबसे ज्यादा उज्वल होता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि संसार में जो मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरों के साथ करता है, दूसरे भी उसी तरह का व्यवहार उसके साथ करते हैं। उदाहरण यह है कि जो लोग ईश्वर का स्मरण मोक्ष प्राप्ति के लिए करते हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो किसी अन्य इच्छा से प्रभु का स्मरण करता हैं, उनकी वह इच्छाएं भी प्रभु कृपा से पूरी हो जाती है। कंस ने सदैव श्रीकृष्ण को मृत्यु के रूप में स्मरण किया। इसलिए, श्रीकृष्ण ने मृत्यु प्रदान की। हमें भी परमात्मा को वैसे ही याद करना चाहिए जैसा रूप पाना चाहते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि क्रोध से भ्रम पैदा होता है. भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है. जब बुद्धि अधिकाधिक व्यग्र होती है तब मनुष्य जाति के सभी तर्क नष्ट हो जाता है. किन्तु जब तर्क नष्ट होता है तब व्यक्ति का पतन हो चुका होता है।
अगर हमें जीवन में सफ़लता हासिल करनी है तो सबसे पहले हम स्वार्थी बनने से बचना होगा, क्युकी मतलबी होना एक ऐसा स्वभाव है जो धीरे धीरे हमें लोगो से दूर करने लगता है सही मायनों में अगर कहा जाय तो ये उस आइने पे पड़ी धूल जैसा है जो हम अपने ही चेहरे को देखने से रोकता है इसलिए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि अगर आपको खुश रहना है तो आपको निस्वार्थ भाव से हर एक काम करना होगा।
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं जो इस पृथ्वी पे आता है वह कभी ना कभी इस मिट्टी में समा ही जाता है इसलिए हमे मृत्यु से कभी डरना नहीं चाहिए अगर हम मृत्यु से डरते हैं तो हम अपनी वर्तमान की खुशियों में कभी शामिल नहीं हो पाते हैं इसलिए ज़रूरी है कि उस सच्चाई से नज़र से नज़र मिला के खुशियों का भरपूर आनंद उठाना।
जी हां भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में ये भी कहा है कि मानव का शरीर एक कपड़े के टुकड़ेजैसा है, जिस प्रकार कपड़े हररोज बदलते है मानव के शरीर से ठीक उसी प्रकार आत्मा भी हर जन्म में मानव के शरीर को बदलती रहती है अर्थात् हमें
किसी मनुष्य की पहचान उसकी आत्मा से करनी चाहिए ना की उसके शरीर से।
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि मनुष्य को किसी भी चीज की अति नहीं करनी चाहिए , ( अति सर्वत्र वर्जते) अधिकता कहीं अच्छी नहीं होती हैं चाहे वह रिश्तों की मिठास हो या उनकी कड़वाहट,खुशी हो या गम, ज़िन्दगी हर मोड़ पे हमें अपना संतुलन बनाए रखना चाहिए।