यदि आप इतिहास के पन्नों को उलट कर देखते हैं तो आपको पंडित दीनदयाल उपाध्याय के बारे में ज्यादा कुछ पढ़ने को नहीं मिलेगा। फिर भी भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हमेशा से यह मानना रहा है कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय भी बिल्कुल महात्मा गांधी की तरह ही दूरदर्शी थे, जिनका जन्म 1916 में हुआ था। दीनदयाल उपाध्याय के बारे में बताया जाता है कि जब वे केवल 8 वर्ष के थे, तभी इनके मां-बाप की मौत हो गई थी। इस तरह से काफी संघर्ष करके इन्होंने अपना बचपन गुजारा। पढ़ाई-लिखाई में वे बहुत ही तेज थे। यही वजह रही कि स्कूल में हमेशा उन्होंने बढ़िया प्रदर्शन करके दिखाया। इस तरह से उन्होंने अपनी पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप भी अपने नाम कर ली।
पास की थी सिविल सेवा की परीक्षा
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने बीए की डिग्री हासिल की थी। पढ़ाई तो वे एमए की भी कर रहे थे, लेकिन कहा जाता है कि एक करीबी रिश्तेदार की मृत्यु हो जाने के कारण वे एमए पूरा नहीं कर पाए थे। साथ ही सिविल सेवा की परीक्षा भी उन्होंने पास कर ली थी। इस परीक्षा में पंडित दीनदयाल उपाध्याय धोती-कुर्ता पहनकर पहुंच गए थे। यही वजह थी कि उन्हें तब से पंडित जी के नाम से भी पुकारा जाने लगा था। सिविल सेवा की परीक्षा में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने टॉप करके दिखाया था। इसके बावजूद वे सरकारी सेवा में नहीं गए। जब 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था, उस वक्त दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे। करीब 5 वर्ष पहले वे संघ का हिस्सा बने थे। विशेषकर आगरा में संघ के सक्रिय नेताओं नानाजी देशमुख और भाऊ जुगाड़े से बहुत हद तक वे प्रेरणा प्राप्त कर रहे थे।
भारतीय जनसंघ की स्थापना
दीनदयाल उपाध्याय आरएसएस के पूर्णकालिक स्वयंसेवक बन गए थे। बाद में वे उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले में पहुंच गए थे। इसके बाद उन्होंने लखनऊ में एक प्रकाशन की भी स्थापना की थी। साथ ही उन्होंने राष्ट्रधर्म नाम की एक पत्रिका की शुरुआत कर दी थी। वर्ष 1950 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल से पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने त्यागपत्र दे दिया था। इसी के बाद नेहरू-लियाकत समझौता हुआ था। वर्ष 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा ही भारतीय जनसंघ की नींव रखी गई थी। इसके लिए उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर से मदद भी मांगी थी।
भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय महासचिव
पंडित दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जनसंघ में शामिल करने की सलाह गोलवलकर की ओर से ही दी गई थी। दीनदयाल उपाध्याय को इसके कुछ समय के बाद उत्तर प्रदेश इकाई का महासचिव बना दिया गया था। बाद में वे भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय महासचिव भी बन गए थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु वर्ष 1953 में हो गई थी। इसके बाद दीनदयाल उपाध्याय के कंधों पर बड़ी जिम्मेवारी आ गई थी। अगले 15 वर्षो तक दीनदयाल उपाध्याय न केवल भारतीय जनसंघ की विचारधारा का प्रचार-प्रसार करते रहे, बल्कि सामाजिक एवं राजनीतिक सिद्धांतों को भी आकार देने की दिशा में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया।
मुसलमानों के हितों की पैरवी करने वाले
जब पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती मनाई जा रही थी तो उस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दीनदयाल उपाध्याय के बारे में कहा था कि उपाध्याय यह मानते थे कि यदि समानता लानी है तो उच्च स्तर पर लोगों को झुकना ही पड़ेगा। उन्हें उन लोगों का समर्थन लेना पड़ेगा, जो कि वर्षों से शोषण और उपेक्षा का शिकार रहे हैं। दीनदयाल उपाध्याय के बारे में प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी बताया था कि दीनदयाल उपाध्याय मुसलमानों के उत्थान के भी पक्ष में थे। उनका मानना था कि भले ही आप मुसलमानों को पुरस्कार मत दीजिए, न हीं आप उन्हें फटकार लगाइए, लेकिन कम-से-कम उनके विकास के लिए काम जरूर कीजिए। मोदी के मुताबिक दीनदयाल उपाध्याय 50 साल पहले यही कहते थे कि मुसलमानों को केवल वोट बैंक के रूप में देखना बंद किया जाना चाहिए।
रहस्य ही बनकर रह गयी मौत
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मौत आज भी एक रहस्य ही बनी हुई है। मुगलसराय जो कि अब पंडित दीनदयाल उपाध्याय रेलवे स्टेशन के नाम से जाना जा रहा है, इसी के नजदीक उनका शव 11 फरवरी, 1968 को बरामद हुआ था। उनके अंतिम संस्कार में तत्कालीन राष्ट्रपति जाकिर हुसैन के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी शामिल हुई थीं। दीनदयाल उपाध्याय को भाजपा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से बिल्कुल भी कम नहीं मानती है।