बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में वामदल महागठबंधन का हिस्सा होंगे या नहीं, इसपर एक बार फिर से सवाल खड़े हो रहे हैं। CPI (ML) के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्या ने कहा कि आरजेडी ने उनकी पार्टी को जितनी सीटों का ऑफर दिया है, उससे वो खुश नहीं हैं। महागठबंधन में मनमाफिक सीटें अगर लेफ्ट को नहीं मिलती हैं तो इसका कारण लगातार लेफ्ट की सीटें कम होना है। 2015 के चुनाव पर लेफ्ट को सिर्फ 3 सीटें ही मिली है। 1990 के अंत तक सड़क से संसद तक बिहार में वामपंथ की दमदार मौजूदगी हुआ करती थी।
साल 2019 लोकसभा चुनाव में बिहार के साथ समूचे CPI को कन्हैया कुमार को लेकर बहुत उम्मीद थी लेकिन उसपर भी पानी फिर गया और कन्हैया कुमार बड़े अंतर से चुनाव हार गए थे। चुनाव से पहले बहुत लोगों का मानना था कि आरजेडी को बेगूसराय सीट कन्हैया कुमार के लिए छोड़ देनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ था। जिसका नुकसान इन दोनों दलों को हुआ।
एक दौर था जब वाम दलों के पास बिहार विधानसभा में 25-30 विधायक और लोकसभा में 4-5 सांसद हुआ करते थे। 1969 विधानसभा चुनाव में CPI के 25 विधायक चुनाव जीतने में कामयाब हुए और जब किसी दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ तो CPI के समर्थन से दारोगा प्रसाद राय के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी थी। वहीं 1972 के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद CPI दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरा और सुनील मुखर्जी प्रतिपक्ष के नेता बनाए गए थे।
वामपंथ लगातार हर विधानसभा में अपनी स्थिति का एहसास करवाता रहा है, 1990 के विधानसभा चुनाव में वामपंथ CPI, CPI(M) और IPF जो बाद में CPI (ML) में विलय हो गया। ये लोग 23, 6 और 7 सीट जीतने में कामयाब हुए थे और जनता दल की सरकार को समर्थन देकर लालू प्रसाद यादव को मुख्यमंत्री बनाने में भी वामपंथियों की अहम भूमिका रही थी।
इस चुनाव के एक साल बाद 1991 में होने वाले लोकसभा चुनाव में CPI को 8 सीटें और CPI(M) को 1 सीट मिली थी, जो वामदलों के लिए अबतक की बिहार में सबसे बड़ी कामयाबी रही थी। साल 1995 विधानसभा चुनाव में CPI, CPI(M) और CPI(ML) को 26, 2 और 6 सीटें मिलीं और इसके बाद 1996 के लोकसभा चुनाव में भी CPI के 3 सांसद जीतने में कामयाब हुए इन दोनों नतीजे का मुख्य कारण लालू यादव के जनता दल के साथ CPI और CPI(M) का चुनाव लड़ना रहा। मधुबनी से चत्रूहन मिश्रा यूनाइटेड फ्रंट की सरकार में मंत्री भी बने लेकिन इस के बाद से अबतक बिहार के किसी भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव में वामपंथी दलों के लिए कोई सकारात्मक नतीजा आया।
वामपंथ ने भूमी सुधार, बटाइदारों को अधिकार, गरीबों के हक और उनपर अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष कर के जो अपनी जमीन तैयार की थी, मंडल आंदोलन से उभरे पिछड़ी जाति के नेताओं जैसे लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान जैसों ने उस पर अपना झंडा गाड़ दिया।
वामपंथी दल इस नए राजनीतिक परिवर्तन के साथ कदम ताल नहीं कर पाए और कुछ लोग CPI, CPI(M) का प्रदेश नेतृत्व अगड़ी जातियों के हाथ में जाना भी पिछड़ने की एक वजह मानते हैं। वर्तमान का झारखंड जो सन 2000 से पहले तक बिहार का हिस्सा हुआ करता था वहां पर नकस्लवाद की शुरुआत हुई जो चुनाव विरोधी थे। ये भी वामपंथ के कमजोर होने का एक महत्वपूर्ण कारण बन गया था। वामपंथी दलों में आपसी टूट भी एक कारण बना था।
एक समय देश की संसद में 45-50 सदस्यों वाले वामपंथ के पास आज संसद में केवल 5 सदस्य बचे हैं। वामपंथ का मजबूत किला माना जाने वाला पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा भी अब ढह चुका है और आज सिर्फ केरल ही एक राज्य लेफ्ट के हाथ में बचा है लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद केरल से भी संकेत सही नहीं हैं।
क्योंकि राज्य में सरकार होने के बावजूद लोकसभा चुनाव में वामपंथ को केरल की 20 लोकसभा सीटों में से केवल 1 सीट पर संतोष करना पड़ा जबकि पार्टी के जो 4 और सदस्य हैं वो तामिलनाडु में कांग्रेस- डीएमके के गठबंधन के कारण मिल पाए हैं। दक्षिण भारत के राज्य आंध्रप्रदेश में भी वामपंथ की पकड़ ठीक ठाक थी, लेकिन अब वहां भी समय के साथ परिवर्तन आया और जमीन खिसक चुकी है। 2004, 2009, 2014में CPI और CPM के पास लोकसभा में 53, 20 और 10 सीटें थीं।