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अखिलेश यादव के बाद एक बार फिर राहुल गांधी ले डूबे तेजस्वी यादव की नैया

कांग्रेस के मुकाबले वाम दलों को तो तेजस्वी यादव ने नजरअंदाज किया ही, साथ में विकासशील इंसान पार्टी की तो परवाह तक नहीं की।
Logic Taranjeet 12 November 2020
अखिलेश यादव के बाद एक बार फिर राहुल गांधी ले डूबे तेजस्वी यादव की नैया

तेजस्वी यादव ने बिहार में अपनी एक अलग पहचान बना ली है। तेजस्वी यादव की अब पहचान बिहार के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों लालू यादव और राबड़ी देवी का बेटा होना भर नहीं रही है। वो इस बार बिहार चुनाव में अपने दम पर उतरे और नए तेवर और जनहित के मुद्दों के साथ चुनाव में सबको हिला कर रख दिया। चुनाव नतीजों में साफ हो गया कि तेजस्वी यादव ने नीतीश कुमार को कड़ी टक्कर दी खी। लेकिन कुछ चीजें ऐसी रही जो साफ तौर पर इशारा कर रही हैं कि अगर थोड़ा ध्यान दिया गया होता तो तस्वीर अलग भी हो सकती थी।

तेजस्वी यादव का 10 लाख नौकरी का चुनावी वादा तो शानदार रहा, लेकिन सीटों के बंटवारे में वो सही फैसले नहीं ले पाये। सीटों के मामले में एक गलत फैसला कांग्रेस को दी गयीं ज्यादा सीटें भी लगने लगी हैं। ऐसा क्यों लगता है कि राहुल गांधी का साथ तेजस्वी यादव के लिए भी वैसा ही अनुभव है जैसा 2017 में यूपी में समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव के लिए रहा है?

कांग्रेस को ज्यादा सीटें दे डाली

बिहार विधानसभा की 243 सीटों में से तेजस्वी यादव ने आरजेडी के बाद सबसे ज्यादा सीटें राहुल गांधी की पार्टी कांग्रेस को दी। देखा जाये तो कांग्रेस ने आरजेडी के साथ ठीक-ठाक मोलभाव किया था। कांग्रेस की जो डिमांड रही उससे कुछ कम ही सीटें उसे मिलीं। विधानसभा चुनाव में आरजेडी ने अपने हिस्से में 144 सीटें रखी थी और कांग्रेस 70 सीटों पर चुनाव लड़ी। वैसे भी कांग्रेस की आखिरी डिमांड 90 से 75 पर पहुंच चुकी थी जब सीटों के बंटवारे पर अंतिम फैसला हुआ। 2015 में भी कांग्रेस महागठबंधन में थी, लेकिन तब उसे सिर्फ 41 सीटें ही मिली थी। जिसमें से वो 27 सीटों पर जीती भी थी लेकिन इस बार ज्यादा सीटें मिलने के बाद भी कुछ नहीं कर पाई।

साल 2017 के यूपी चुनाव में राहुल गांधी ने अखिलेश यादव की पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया था। समाजवादी पार्टी 403 में से खुद 298 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और कांग्रेस के हिस्से में 105 सीटें आयी थीं। लेकिन जब नतीजे आये तो सिर्फ 7 ही सीटें मिली थी। तुरंत बाद ही गठबंधन भी टूट गया। वैसे समाजवादी पार्टी को भी सत्ता तो गंवानी ही पड़ी थी सीटें भी 47 ही मिल पायी थीं। अगर मौजूदा चुनाव में भी कांग्रेस और आरजेडी के प्रदर्शन की तुलना करें तो घाटे में तेजस्वी यादव ही रहे हैं। अगर तेजस्वी यादव ने कांग्रेस को कुछ कम सीटें देकर उनकी जगह आरजेडी के उम्मीदवार उतारे होते या फिर लेफ्ट को सीटें दी होती तो बेहतर नतीजे हो सकते थे।

लेफ्ट को नहीं दी अहमियत

कांग्रेस की ही तरह वाम दलों ने भी ज्यादा सीटों की मांग की थी, लेकिन तेजस्वी यादव ने उन्हें उतनी सीटें नहीं दी। औसत के हिसाब से देखा जाये तो चुनाव रुझानों में वाम दलों का प्रदर्शन तो आरजेडी से भी अच्छा रहा है। तेजस्वी यादव ने वाम दलों को कुल 29 सीटें दी थी – सबसे ज्यादा सीपीआई-एमएल को 19, सीपीआई को 6 और सीपीएम को 4 सीटें। तीनों ही लेफ्ट पार्टी अपने-अपने चुनावी क्षेत्रों में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने में सफल रही और 29 में से 16 सीटों पर जीत हासिल की। ऐसे में तेजस्वी यादव ने कांग्रेस की दी गयी सीटों में से कुछ अपने पास रखी होती और कुछ वाम दलों में बांट दी होती तो शायद सत्ता मिल जाती।

वीआईपी को हल्के में लिया

कांग्रेस के मुकाबले वाम दलों को तो तेजस्वी यादव ने नजरअंदाज किया ही, साथ में विकासशील इंसान पार्टी की तो परवाह तक नहीं की। सीटों के बंटवारे वाली प्रेस कांफ्रेंस से वीआईपी के मुकेश साहनी रूठ कर चले गये और जाकर एनडीए में शामिल हो गए। एनडीए ने भी मुकेश साहनी को तुरंत ले लिया और मुंहमांगी सीटें भी दे दी। महागठबंधन में जैसा प्रदर्शन वाम दलों का रहा है, करीब करीब वही हाल मुकेश साहनी की वीआईपी का भी देखने को मिला है।

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A writer, poet, artist, anchor and journalist.