हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल की जनता ने भारतीय जनता पार्टी की झोली में खुशियां डाली है। बीजेपी ने वहां पर ममता बनर्जी की टीएमसी को कड़ा मुकाबला दिया और पिछले चुनाव में 2 सीटें जीतने वाली बीजेपी बंगाल में 18 सांसदों तक पहुंच गई है। इस बार वहां पर सीपीएम का खाता तक नहीं खुला है। ये वही दल है जिसका कभी गढ़ हुआ करता था पश्चिम बंगाल। यहां पर वाम दलों के लाल समर्थन पर खड़े होकर बीजेपी का भगवा 18 पर आ गया है। बंगाल के नतीजों पर अगर हम कहें कि बंगाल में भगवा लाल के मिश्रण से ज्यादा चटक हो गया है।
वाम का साथ मिला
हालांकि पहले से ही ऐसा होने की आशंकाएं लगाई जा रही थी, लेकिन नतीजों ने पूरी तरह से साफ कर दिया कि बंगाल की जनता ममता बनर्जी की तृनमूल कांग्रेस के विकल्प में वामदलों को नहीं बल्कि बीजेपी की तरफ खिसक रही है। यही कारण रहा है कि भारतीय जनता पार्टी को साल 2014 में 17 फीसदी वोट मिले थे जबकि 2019 में 40 फीसदी से ज्यादा वोट पाने में ये पार्टी सफल हुई है। वहीं लेफ्ट के वोटों में भी लगभग इतनी ही गिरावट दर्ज की गई है। इससे ये साफ समझ में आता है कि गांव-देहात में वाम समर्थकों ने बीजेपी के पक्ष में वोट डाले हैं।
लंबे अरसे तक मुख्यमंत्री और बंगाल में लेफ्ट का चेहरा रहे सीपीएम के वरिष्ठ नेता बुद्धदेव भट्टाचार्य ने आखिरी दौर के मतदान से पहले पार्टी के मुखपत्र गणशक्ति को दिए एक इंटरव्यू में वाम और राम के घालमेल के खतरे का साफ संकेत दिया था। उन्होंने आम लोगों को चेतावनी दी थी कि टीएमसी के “फ्राइंग पैन” से बीजेपी के “फायरप्लेस” में कूदना बेमतलब है। भट्टाचार्य ने राज्य में बीजेपी के बढ़ते उभार को खतरा बताया था और जनता से कहा था कि टीएमसी से मुक्ति के लिए लोगों को बीजेपी को चुनने की गलती नहीं करें। लेकिन उनकी ये चेतावनी काफी देर से सामने आई। तब तक पार्टी को और लेफ्ट के वजूद को काफी नुकसान हो गया था। खराब सेहत की वजह से पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य चुनाव प्रचार से पूरी तरह दूर रहे, लेकिन उन्होंने साफ कहा कि लोकसभा चुनावों में सीपीएम की असली दुश्मन बीजेपी थी, टीएमसी नहीं। टीएमसी से बचने के लिए बीजेपी को समर्थन देना गलत है।
इतिहास में सबसे बुरी हार
साल 1964 में सीपीआई से अलग होकर वजूद में आने के बाद अब तक बंगाल में कभी सीपीएम की ऐसी बुरी हालत नहीं हुई थी। बंगाल में लोकसभा चुनावों में बेहतरीन प्रदर्शन करने के कारण ही साल 1989, 1996 और 2004 में पार्टी ने केंद्र में सरकार के गठन में अहम भूमिका निभाई थी। साल 2004 में उसे 42 में से 26 सीटें मिली थीं। लेकिन टीएमसी के उभार के साथ साल 2009 के बाद उसके पैरों तले की जमीन खिसकने लगी और 34 साल तक बंगाल में अकेले राज करने वाली पार्टी को साल 2014 में महज दो सीटों से ही संतोष करना पड़ा था।
क्यों खिसक गए वोटर
लेकिन आखिर लेफ्ट के वोटरों का इतनी बढ़ी तादाद में बीजेपी की तरफ खिसकने की क्या वजह रही है? दरअसल राजनीतिक जानकारों की अगर माने तो इसके लिए लेफ्ट की नीतियों और नेतृत्व के अभाव को दोषी ठहराया जा सकता है। वहीं दूसरी तरफ, आम लोगों के मन में भी इसी वजह से लेफ्ट से दूरी बढ़ती जा रही है। लेफ्ट के समर्थकों का भी कहना है कि ममता पहले से ही हमारी दुश्मन हैं। ऐसे में उस पार्टी का समर्थन करना चाहिए जो उनसे दो-दो हाथ करने में सक्षम हो, वामदलों का अस्तित्व खतरे में हैं, उनकी रैलियों में 15-20 लोगों से ज्यादा आते नहीं।
कई जगहों पर तो आलम ये रहा कि सीपीएम के स्थानीय नेताओं ने ही आखिरी मौके पर अपने समर्थकों से बीजेपी का समर्थन करने की अपील की थी। क्योंकि उनके पास कोई ठोस नीति नहीं थी और ना ही नेतृत्व जिसकी वजह से सीपीएम को रसातल में पहुंचा दिया गया है। लेकिन वहां अगर देखें तो अब लेफ्त के लिए ये अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा हो गया है। क्योंकि उनके समर्थकों का बीजेपी की तरफ खिसक जाने की वजह से राज्य में वामदलों की बची खुची साख भी खत्म हो गई है। सूबे में इतने खराब प्रदर्शन की कल्पना तो शायद नेताओं ने भी नहीं की होगी। वहीं अब बारी है वाम के आत्मचिंतन की और इस बारे में विचार करने की उनके सारे किले एक के बाद गिरते क्यों जा रहे हैं और अब इन्हें दोबारा कैसे खड़ा किया जाए।