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मोदी को हटाने के लिए कांग्रेस के पास असला तो बहुत है लेकिन चलाना नहीं आ रहा

पेगासस विवाद से लेकर कोविड महामारी में सरकार की बदइंतजामी से लेकर किसान आंदोलन तक का मौका विपक्ष खासकर कांग्रेस ने अपने हाथ से जाने दिया है। कांग्रेस पार्टी ने एक के बाद एक तमाम मुद्दों को संसद के चालू मॉनसून सत्र में उठाकर नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने की कोशिश तो जरूर की है। लेकिन ऐसा करते हुए इस कांग्रेस ने ये साफ कर दिया है कि वो अभी तक एक मुद्दा सही तरीके से उछालने में असमर्थ है। कांग्रेस किसी भी तरह से जमीनी स्तर पर मुद्दा उठाने और मोदी और भाजपा की छवि को किसी तरह की नुकसान पहुंचाने में फेल हो गई है।

क्या भाजपा का भी ऐसा रवैया होता?

यही अगर विपक्ष में भाजपा होती और सत्ता में कांग्रेस तो रवैया बहुत अलग होता। इन्हीं मुद्दों की कल्पना करें जैसे राफेल में घोटाले का शक, गिरती अर्थव्यवस्था, महंगा होता तेल, किसानों का महीनों से तल रहा आंदोलन, कोरोना जैसी त्रासदी, स्वास्थ्य व्यवस्था का फेल हो जाना, जासूसी कांड, इन मुद्दों का भाजपा क्या करती ये सब हम देख चुके हैं। वहीं अब प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह थाली में परोसे इन मुद्दों का क्या करेंगे ये सहज अनुमान लगाया जा सकता है। लेकिन मानो बेहोशी में पड़ी कांग्रेस पार्टी कोशिश करके भी इन मुद्दों को विजयी चुनावी राजनीति में बदल नहीं पा रही है। यहां तक कि संसद भवन तक की ट्रैक्टर यात्रा भी उसे किसी तरह की रफ्तार नहीं दे सकी है।

साल 2013 में राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के सामने आने के बाद से ही ये कांग्रेस और उसके नेतृत्व के लिए एक स्थायी समस्या रही है। पार्टी कई विफल तरीके आजमा चुकी है जैसे सूट-बूट की सरकार, चौकीदार चोर है, मोदी के घड़ियाली आंसू जैसे नारों को भी आजमाया जा चुका है। यहां तक की कई बड़े गठबंधन तक भी कर लिए लेकिन कांग्रेस के हाथ अभी तक वो फॉर्मूला नहीं लगा है जो मोदी को हरा सके। जैसा दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, बंगाल में ममता दीदी के पास है।

दरअसल जब कोई भी पार्टी एक मजबूत नेतृत्व से और चुनाव जिताने वाले चेहरे से वंचित हो जाती है तब उसे सबसे जरूरत इस बात की होती है कि अपने ताकतवर प्रतिद्वंदी का मुकाबला करने के लिए कोई जोरदार मुद्दा उठा सके। लेकिन दुर्भाग्य से कांग्रेस जब मजबूत नेतृत्व से वंचित होती है तब वो दूसरी समस्या सुलझाने में भी विफल हो जाती है।

मुद्दा-दर-मुद्दा हार मानती रही है कांग्रेस

कांग्रेस फिलहाल कई चुनौतियों से जूझ रही है। भाजपा और मोदी की लोकप्रियता, अमित शाह की चुनावी इंजीनियरिंग और कार्यकर्ताओं से अलग-थलग अपने शीर्ष नेतृत्व की दिशाहीनता उसकी मुश्किलों में इजाफा कर देते हैं। मोदी की छवि को न तो भ्रष्टाचार के आरोपों से चोट पहुंच रही है, न नीतिगत फैसलों के पीछे की मंशा पर सवाल उठाने से या उनकी पार्टी के अल्पसंख्यक विरोधी तौर-तरीके पर सवाल उठाए जाने से फर्क पड़ रहा है।

वैसे, राहुल गांधी के सूट बूट की सरकार वाले कटाक्ष ने मोदी को चोट जरूर पहुंचाई थी और उन्होंने भूमि अधिग्रहण कानून को कमजोर करने से कदम खींच लिया था और कल्याणकारी नीतियों की ओर मुड़ गए थे। लेकिन उस कटाक्ष ने चुनावों में उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाया और न ही कांग्रेस को कोई फायदा पहुंचाया था। इसकी वजह शायद ये थी कि मोदी ने समझ लिया था कि ये उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है और उन्होंने तुरंत रास्ता बदल लिया था।

नोटबंदी से भी कुछ हासिल नहीं कर सकी कांग्रेस 

नवंबर 2016 में नोटबंदी का कदम मोदी पर हमले का आसान हथियार बन गया था। आखिर, ये एक नुकसानदेह और अनावश्यक नीतिगत कदम था, जिससे कुछ हासिल नहीं हुआ। कांग्रेस ने इस मुद्दे का भी इस्तेमाल किया लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा का 2017 का चुनाव नतीजा आते ही सारी बातें खत्म हो गई थी। इस गलत कदम ने मोदी की भाजपा को कितना कम नुकसान पहुंचाया, ये सबके सामने था। राहुल गांधी आरोप लगाते रहे कि नोटबंदी से मोदी के चंद पूंजीपति दोस्तों को ही फायदा पहुंचा है लेकिन मतदाताओं पर इन तमाम बातों का कोई असर नहीं पड़ा।

इसके अलावा, राफेल का मुद्दा भी कांग्रेस को काफी लुभावना लगा, साल 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले हर चुनावी सभा में राहुल ने चौकीदार चोर है का नारा बुलंद किया लेकिन इसका भी कोई लाभ नहीं मिला। ऐसे मुद्दों में नरम हिंदुत्व का मुद्दा भी जोड़ लीजिए। राहुल ने खुद को जनेऊधारी तक घोषित किया, धर्मनिरपेक्षता का राग अपनाया और भाजपा पर बहुसंख्यकवादी राजनीति करने का आरोप भी लगाया लेकिन एक बार फिर कुछ काम न आया।

कोविड ने हथियार तो दिए लेकिन चला नहीं सकी कांग्रेस

कोविड संकट और 2020 में देशव्यापी लॉकडाउन लगाने के मोदी के फैसले के बाद प्रवासी मजदूरों के अपने घरों की ओर पैदल चल पड़ने वाल तस्वीरों ने कांग्रेस को और हथियार दिए थमाए। इसके साथ नये नागरिकता कानून को थोपने और विरोधियों के खिलाफ कार्रवाई करने के भाजपा और उसकी सरकार के कदमों ने उसे पहले ही मुद्दे थमा दिए थे। लेकिन जिन राज्यों के चुनावों में कांग्रेस को भाजपा से सीधा मुकाबला करना पड़ा वहां पर कुछ भी हासिल नहीं हो सका।

अब कांग्रेस के पास इतने मुद्दे हैं कि वो चुन नहीं पा रही है। वो मोदी सरकार पर हर चीज के लिए हमला करना चाहती है चाहे फिर वो कोविड की दूसरी लहर में उसकी बदइंतजामी हो या फिर किसानों का संकट हो या अब पेगासस जासूसी कांड। लेकिन ऐसा लगता है कि पार्टी अनिश्चय में है और उसे समझ में नहीं आ रहा है कि किस मुद्दे पर जोर दे और ज्यादा असर डाले। इसकी वजह ये है कि कांग्रेस देख चुकी है कि पिछले 7 सालों में उसने जो भी मुद्दा उठाया वो काम नहीं कर सका।

पार्टी के शशि थरूर जैसे कुछ नेताओं का मानना है कि पेगासस मुद्दे का जमीनी स्तर पर खास असर नहीं पड़ेगा। लेकिन कुछ नेताओं को लगता है कि कोविड की दूसरी लहर खत्म हो जाने के बाद ये मुद्दा भी अब बेअसर हो चुका है। इसी तरह, कुछ नेताओं का कहना है कि किसानों का सवाल भी कांग्रेस की बहुत मदद नहीं करेगा क्योंकि मोदी ने राहुल पर नामदार का बिल्ला चिपका दिया है और राहुल जब जनता में किसानों की बात करेंगे तो वो उन पर विश्वास नहीं करेगी।

फॉर्मूला नहीं खोज पाई कांग्रेस

कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि उसके पास फिलहाल चुनावों में जादू करने वाला कोई राष्ट्रीय चेहरा नहीं है जो मोदी की बड़ी चुनौती का मुकाबला कर सके। कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर वास्तव में नेतृत्व दे सकने लायक नेता जब तक नहीं मिलता तब तक उसे ऐसा कुछ ढूंढना पड़ेगा जो उसे दौड़ में बनाए रखे, शायद एक ऐसा जोरदार मुद्दा, जो जनता में गूंज पैदा करे और मोदी को निर्णायक रूप से कठघरे में खड़ा कर सके। लेकिन न तो पार्टी के आलाकमान में जोश नजर आता है और न ही वो पार्टी में जोश पैदा कर पा रहे हैं, जिससे वो मोदी को निशाना बनाने वाला हथियार ढूंढ सके और उसे इतना धारदार बना सके कि वो मोदी की राजनीति को वास्तव में नुकसान पहुंचा सके।

मुद्दे चुनावों में महत्व रखते हैं और व्यक्ति-केंद्रित राजनीति के आज के दौर में भी अहमियत रखते हैं और असली कुंजी ये है कि सही और सटीक मुद्दा खोज लिया जाए। आज जो अराजकता छायी हुई है, एक मुद्दे से दूसरे मुद्दे की ओर दौड़ मची है वो यही दिखाती है कि कांग्रेस किस तरह अभी भी अपनी राह खोज रही है, वो तरह-तरह के तरीके अपना रही है और समझ नहीं पा रही कि वास्तव में क्या कारगर होगा और क्या वो सचमुच कारगर होगा ही। लेकिन अटकलों और प्रयोगों को विराम देना पड़ेगा और भारत की सबसे पुरानी पार्टी को उस बड़े मुद्दे को चुनना होगा जो उसकी तकदीर बना दे और भारत की सबसे शक्तिशाली पार्टी को परास्त कर सके।