पश्चिम बंगाल चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर से वाम दलों के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ेगी। जिसका सीधा मुकाबला भाजपा और तृणमूल कांग्रेस से होगा। बिहार में तो महागठबंधन को सिर्फ सत्ताधारी गठबंधन से जूझना था क्योंकि बाकी सब तो वोटकटवा ही थे।लेकिन पश्चिम बंगाल में कांग्रेस-लेफ्ट को ममता के साथ-साथ भाजपा से भी अलग से मुकाबला करना होगा। खास बात तो ये है कि पश्चिम बंगाल के साथ ही केरल में भी विधानसभा के चुनाव होने हैं और वहां पर कांग्रेस और लेफ्ट एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे। केरल चुनाव में सबसे ज्यादा नजरें राहुल गांधी पर टिकी रहेंगी क्योंकि फिलहाल वो केरल के वायनाड से ही सांसद हैं।
कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन किसके खिलाफ?
पश्चिम बंगाल को लेकर पहले से ही साफ था कि कांग्रेस का ममता बनर्जी के साथ चुनावी समझौता नहीं होने वाला है। क्योंकि अधीर रंजन चौधरी को कांग्रेस नेतृत्व ने सूबे में पार्टी की कमान सौंप दी थी। ये अधीर रंजन चौधरी ही थे जो 2011 में भी कांग्रेस के टीएमसी के साथ गठबंधन के कट्टर विरोधी थे, लेकिन तब उनकी नहीं सुनी गई थी। जब साल भर बाद ही ममता बनर्जी ने केंद्र की यूपीए सरकार से समर्थन वापिस ले लिया था, तो सबसे ज्यादा खुश कांग्रेस नेताओं में पहले नंबर पर अधीर रंजन चौधरी ही रहे।
साल 2016 के विधानसभा चुनावों की बात करें तो उस वक्त तृणमूल कांग्रेस को 211, कांग्रेस को 44, लेफ्ट को 32 और भाजपा को महज दो सीटें मिली थी। बिहार महागठबंधन की तरफ से बेहतरीन प्रदर्शन करने वाली सीपीआई-एमएल के नेता दीपांकर भट्टाचार्य कांग्रेस के साथ गठबंधन के पक्ष में नहीं थे। वो चाहते थे कि वाम दलों को ममता बनर्जी के साथ मिलना चाहिए और भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ना चाहिए।
लेकिन पश्चिम बंगाल के लेफ्ट नेताओं ने दीपांकर भट्टाचार्य के सुझावों को सिरे से ये कहते हुए खारिज कर दिया कि बिहार और पश्चिम बंगाल के राजनीतिक मिजाज के बुनियादी फर्क को वो नहीं समझते। दरअसल, राज्य में भाजपा के उभार के लिए पश्चिम बंगाल कांग्रेस और लेफ्ट के नेता ममता बनर्जी को भी जिम्मेदार ठहराते रहे हैं।
बंगाल में बिहार जैसा कोई चेहरा नहीं होगा
बिहार और पश्चिम बंगाल में पहला और बड़ा फर्क तो ये है कि कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन के पास ममता बनर्जी के मुकाबले मुख्यमंत्री का कोई चेहरा नहीं होगा। बिहार में ये भूमिका तेजस्वी यादव निभा रहे थे। कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी के अनुसार, लेफ्ट के साथ उनका गठबंधन बगैर मुख्यमंत्री पद के चेहरे के चुनाव लड़ेगा। हालांकि भाजपा भी ऐसा ही कर रही है और मुख्य चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही होंगे। बाकी अमित शाह ने जनरलों में मुकुल रॉय के साथ अब शुभेंदु अधिकारी भी अपने इलाके में भाजपा का चेहरा बनेंगे।
ओवैसी को नहीं कर सकते नजरअंदाज
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में मुख्य तौर पर असली लड़ाई ममता बनर्जी और भाजपा के बीच ही है, लेकिन कांग्रेस और लेफ्ट के बीच गठबंधन बन जाने से इसे त्रिकोणीय मुकाबला माना जा सकता है। लेकिन वहीं असदुद्दीन ओवैसी को पूरी तरह से नजरअंदाज करना भी ठीक नहीं होगा। बिहार चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने जिस तरीके से प्रदर्शन किया है, वो बंगाल में भी असर दिखा सकता है।
असदुद्दीन ओवैसी ने सिर्फ 5 सीटें ही नहीं जीती बल्कि उन्होंने पूरा खेल पलट दिया था। मुस्लिम समुदाय असदुद्दीन ओवैसी को अपने नेता के तौर पर देखने लगा है। पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोट काफी अहम है और ममता बनर्जी की एक बड़ी ताकत भी है। लेफ्ट के लंबे शासन के पीछे भी मुस्लिम वोट बैंक प्रमुख फैक्टर माना जाता रहा है। अब असदुद्दीन ओवैसी पश्चिम बंगाल के मुस्लिम समुदाय को नया विकल्प देने जा रहे हैं।
ममता ने नहीं किया गठबंधन
असदुद्दीन ओवैसी ने पहले ममता बनर्जी को गठबंधन का प्रस्ताव दिया था, लेकिन वो खारिज हो गया। उसके बाद तो यही समझा जा रहा है कि मुस्लिम वोट पर ओवैसी जबरदस्त सेंधमारी करने वाले हैं और इसका फायदा भाजपा को होगा। क्योंकि मुस्लिम समुदाय को वोट देने के लिए एक बेहद कद्दावर नेता मिलेगा। मुद्दे की बात अब ये है कि बिहार के मुकाबले पश्चिम बंगाल में कांग्रेस लेफ्ट के साथ मिल कर बेहतर प्रदर्शन करेगी या खराब?
ये कई बातों पर निर्भर करेगा। गठबंधन को सबसे पहले तो ये तय करना होगा कि वो सबसे बड़ी चुनौती ममता बनर्जी को मानता है या भाजपा को। अगर ममता बनर्जी को ही बड़ा चैलेंज मानता है तो ये भाजपा के लिए फायदेमंद होगा, लेकिन अगर भाजपा को मानता है तो वोटकटवा बन कर ममता के लिए लाभदायक हो सकता है और अगर ऐसा होता है तो कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन को पहले से ही मान लेना चाहिये कि उसका मुकाबला ममता बनर्जी या भाजपा से नहीं, बल्कि असदुद्दीन ओवैसी से होने जा रहा है।