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अपनी जिद के कारण जब चुनाव हारे थे प्रणब मुखर्जी, इंदिरा गांधी ने भी किया था मना

प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के सबसे बड़े नेताओं में से एक रहे। प्रणब मुखर्जी भारत के राष्ट्रपति भी बने। प्रणब मुखर्जी का राजनीतिक सफर यादगार रहा। प्रणब मुखर्जी ने कांग्रेस में रहते हुए पार्टी को मजबूत करने का काम किया। प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के सबसे कुशल नेताओं में से एक थे।

1969 में राज्यसभा में पहुंचे प्रणब

सबसे पहली बार उन्होंने वर्ष 1969 में चुनाव लड़ा था। यह राज्यसभा का चुनाव था। प्रणब मुखर्जी ने यह चुनाव बांग्ला कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में लड़ा था। इसमें उन्हें जीत हासिल हुई थी। इस तरह से राज्यसभा में वे पहुंच गए थे।

1969 में कांग्रेस का हो गया विभाजन

वर्ष 1969 में कांग्रेस का विभाजन भी हुआ था। दरअसल राष्ट्रपति चुनाव हो चुका था। उस वक्त एस निजलिंगप्पा कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से उनकी नहीं बन रही थी। ऐसे में उन्होंने उनको कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखा दिया था।

कांग्रेस के विभाजन का कारण यही बना था। फिर अपनी ही कांग्रेस इंदिरा गांधी ने बना ली। इसका नाम कांग्रेस (रिक्विजिशनिस्ट) था। इस तरह से अब दो कांग्रेस हो गए थे। निजलिंगप्पा वाली कांग्रेस कांग्रेस ऑर्गेनाइजेशन यानी कि संगठन कांग्रेस के नाम से जानी जाती थी।

वर्ष 1971 का लोकसभा चुनाव

वर्ष 1971 में लोकसभा का चुनाव हुआ था। कांग्रेस (रिक्विजिशनिस्ट) में ही बंगला कांग्रेस ने अपना विलय कर लिया था। पार्टी में प्रणब मुखर्जी का कद बढ़ता जा रहा था। केंद्रीय मंत्रिपरिषद में भी उन्हें जगह मिली थी। पहली बार ऐसा 1974 में हुआ था। तब उन्हें शिपिंग और ट्रांसपोर्ट विभाग मिला था। वह इसके उप मंत्री बने थे।

कुछ समय के बाद वे वित्त मंत्री यशवंत राव चौहान के साथ सम्बद्ध हो गए थे। लगभग दो साल तक उन्होंने उनके साथ काम किया। प्रणब मुखर्जी उप वित्त मंत्री बने रहे।

लोकसभा चुनाव लड़ने का मिला मौका

फिर उन्हें लोकसभा चुनाव लड़ने का मौका मिला। जी हां, वर्ष 1977 में लोकसभा चुनाव हुए थे। उस वक्त इंदिरा गांधी के खिलाफ लहर दौड़ गई थी। इस चुनाव में इंदिरा गांधी को हार का मुख देखना पड़ा था। आपातकाल इंदिरा गांधी पर भारी पड़ गया था। इसी के कारण इंदिरा गांधी की हार हुई थी। जनता पार्टी बहुत से विपक्षी दलों से मिलकर बनी थी।

इस चुनाव में उसी की जीत हुई थी। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जनता पार्टी का गठबंधन था। प्रणब मुखर्जी ने भी तब चुनाव में बड़ी मेहनत की थी। बंगाल की मालदा लोकसभा सीट से वे कांग्रेस (रिक्विजिशनिस्ट) के उम्मीदवार थे।

30 हजार मतों से हार गए थे प्रणब मुखर्जी

यहां पर दिनेश चंद्र जोरदार से उनका मुकाबला था। वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी थे। दोनों के बीच टक्कर तो अच्छी-खासी हुई थी। फिर भी प्रणब मुखर्जी इस चुनाव में टिक नहीं पाए थे। लगभग 30 हजार मतों से उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था।

कांग्रेस से फिर निकाली गई थीं इंदिरा गांधी

कांग्रेस में एक बार फिर से विभाजन की नौबत आई थी। ऐसा 1978 में हुआ था। कांग्रेस से फिर से इंदिरा गांधी निकाल दी गई थीं। ऐसे में उन्होंने कांग्रेस (इंदिरा) बना ली थी। इसे ही इंदिरा कांग्रेस यानी कि इंका भी कहते हैं। चव्हाण कांग्रेस भी तब थी। इसमें करण सिंह, बलिराम भगत और वाई वी चौहान जैसे वरिष्ठ नेता शामिल थे।

इंदिरा गांधी के साथ जगन्नाथ मिश्र थे। पीवी नरसिम्हा राव थे, जो बाद में प्रधानमंत्री भी बने। ज्ञानी जैल सिंह और जानकी वल्लभ पटनायक भी इंदिरा गांधी के साथ थे। नई टीम इंदिरा गांधी ने बना ली थी। बूटा सिंह और भीष्म नारायण सिंह के साथ प्रणब मुखर्जी भी इसमें मौजूद थे।

1979-80 का लोकसभा चुनाव

लोकसभा चुनाव फिर हो रहे थे। वर्ष 1979-80 का यह वक्त था। चुनाव लड़ने की जिद प्रणब दा ने पाल ली थी। उन्होंने इंदिरा गांधी से कहा था कि वे बोलपुर से चुनाव लड़ेंगे। इंदिरा गांधी ने उन्हें मना किया था। कहा था कि वामपंथियों का वह गढ़ है। फील्ड की सियासत वे नहीं समझते। उनकी पत्नी भी नहीं चाहतीं कि वे चुनाव लड़ें। प्रणब नहीं माने। पर्चा भर दिया। चुनाव प्रचार में खूब मेहनत की।

सही निकला था इंदिरा गांधी का अंदेशा

परिणाम भी आ गया। इंदिरा गांधी का अंदेशा सही था। प्रणब मुखर्जी हार गए थे। सारदीश राय ने उन्हें हराया था। प्रणब मुखर्जी को फिर भी इंदिरा गांधी ने दिल्ली बुलाया था। प्रणब को लगा था कि वे गुस्सा करेंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

संजय गांधी ने दिल्ली में उन्हें रिसीव भी किया। इस्पात और खान मंत्री की जिम्मेवारी उन्हें मिली। इस तरह से प्रणब मुखर्जी पर इंदिरा गांधी बहुत भरोसा करती थीं।