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लोकतंत्र की हत्या की बात कहने वाली कांग्रेस कब अपने गिरेबान में झांकेगी

कांग्रेस को नेतृत्व से लेकर संगठन तक बुनियादी बदलाव की जरूरत है और तभी वो एक ऐसा विश्वसनीय विपक्ष बन सकती है जिसकी लोकतंत्र को जरूरत होती है।
Logic Taranjeet 1 August 2020
लोकतंत्र की हत्या की बात कहने वाली कांग्रेस कब अपने गिरेबान में झांकेगी

राजस्थान में कांग्रेस में उथल-पुथल जारी है। सचिन पायलट बागी रुख अपनाए हुए हैं हालांकि कांग्रेस की तरफ से ये सारी कहानी भाजपा की साजिश बताई जा रही है। कांग्रेस नेता अजय माकन कहते हैं कि किसी चुनी हुई सरकार को पैसे की ताकत से हिलाना या गिरा देना तो जनादेश के साथ धोखा है और लोकतंत्र की हत्या है। पार्टी के दूसरे नेता भी ऐसी बातें कह चुके हैं।

इससे पहले विधायकों की बगावत के बाद कांग्रेस, भाजपा के हाथों कर्नाटक और मध्य प्रदेश की सत्ता गंवा चुकी है। तब भी भाजपा पर लोकतंत्र की हत्या करने का आरोप लगाया था। कई विश्लेषक भी इस तरह सत्ता परिवर्तन को लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं बताते।

अगर विधायक किसी भी समय खरीदे और बेचे जा सकते हैं तो फिर चुनाव करवाने का मतलब ही क्या है? क्या इससे उन भारतीयों की लोकतांत्रिक इच्छा के कुछ मायने रह जाते हैं जिन्होंने इन राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में वोट दिया था? अगर पैसे की ताकत का इस्तेमाल करके इतने प्रभावी तरीके से निष्पक्ष और स्वतंत्र कहे जाने वाले किसी चुनाव का नतीजा पलटा जा सकता है तो भारत को सिर्फ चुनाव का लोकतंत्र भी कैसे कहा जाए?

क्या लोकतंत्र कांग्रेस पार्टी में है?

लेकिन ऐसे में सवाल तो ये भी है कि क्या कांग्रेस पार्टी के अंदर लोकतंत्र है? क्या भाजपा पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगा रही कांग्रेस खुद इस लोकतंत्र को कोई बेहतर विकल्प दे सकती है? क्या खेत की मिट्टी से ही उसमें उगने वाली फसल की गुणवत्ता तय नहीं होती है? साल 2019 के आम चुनाव में भाजपा की दोबारा प्रचंड जीत के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। साल 1919 में मोतीलाल नेहरू पहली बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे, यानी की 100 साल पहले। तब से अब तक कांग्रेस में काफी फर्क देखा गया है।

आसमान में रहने वाली कांग्रेस आज सही से जमीन पर भी नहीं है। और कांग्रेस के विचार तो खत्म ही हो गए हैं। मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू वाली कांग्रेस में नेतृत्व के फैसलों पर खुलकर बहस होती थी और इसमें आलोचना के लिए भी खूब जगह थी। लेकिन क्या आज की कांग्रेस में ऐसा होता है। क्या फिरोज गांधी के वंशज अपने ससुर पर आरोप लगा सकते हैं। जिस तरह से नेहरू पर आरोप उन्हीं के दामाद फिरोज गांधी ने लगाया था।

दो लोकसभा चुनावों में बुरी हार के बाद भी ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है जिससे लगे कि पार्टी खुद को पुनर्जीवित करने के प्रति गंभीर है। ये संजय निरुपम ने कुछ ही दिन पहले कहा था। इतना ही नहीं उन्होंने कहा कि अगर कोई कंपनी किसी एक तिमाही में भी बुरा प्रदर्शन करती है तो उसका कड़ा विश्लेषण होता है और किसी को नहीं बख्शा जाता, खास कर सीईओ और बोर्ड को।

वहीं संजय झा ने जब कहा कि कांग्रेस में ऐसा कोई मंच तक नहीं है जहां पार्टी की बेहतरी के लिए स्वस्थ संवाद हो सके। तो इसके बाद उन्हें प्रवक्ता पद से हटा दिया गया। इसके कुछ दिन बाद उन्होंने जब सचिन पायलट का पक्ष लिया तो संजय झा को पार्टी से भी निलंबित कर दिया गया।

इंदिरा गांधी से हुई थी शुरुआत

महात्मा गांधी, सरदार वल्लभभाई पटेल और राजेंद्र प्रसाद जैसे कांग्रेसी दिग्गजों ने हमेशा कोशिश की कि उनके बच्चे उनकी राजनीतिक विरासत का फायदा न उठाएं। लेकिन इंदिरा गांधी इससे उलट राह पर गईं। उन्होंने वंशवाद को संस्थागत रूप देने की भूल की, अपने छोटे बेटे संजय को वो खुले तौर पर अपना उत्तराधिकारी मानती थीं। जब संजय गांधी की एक विमान दुर्घटना में असमय मौत हुई तो इंदिरा अपने बड़े बेटे राजीव गांधी को पार्टी में ले आईं जिनकी राजनीति में दिलचस्पी ही नहीं थी।

इंदिरा और राजीव गांधी की इस पारिवारिक पकड़ ने पार्टी में नंबर दो का पद भी ढहा दिया था। इंदिरा गांधी के समय में ही कांग्रेस में हाईकमान कल्चर का जन्म हुआ और क्षेत्रीय नेता हाशिये पर डाल दिए गए। ऐसा इंदिरा गांधी ने दो तरीकों से किया – पहले उन्होंने पार्टी का विभाजन किया और फिर ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दीं कि पार्टी से वफादारी के बजाय इंदिरा गांधी से वफादारी की अहमियत ज्यादा हो गई।

राजीव गांधी का राजनीति में आना

यही वजह थी कि 1984 में जब अपने अंगरक्षकों के हमले में इंदिरा गांधी की असमय मौत हुई तो राजनीति के मामले में नौसिखिये राजीव गांधी को तुरंत ही पार्टी की कमान दे दी गई। उन्होंने अपनी मां से मिले सबक याद रखे। शरद पवार, नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह जैसे कई मजबूत नेताओं पर लगाम रखने के लिए राजीव गांधी ने भी नेताओं का एक दरबारी समूह बनाया।

कोई खास जनाधार न रखने वाले इन नेताओं को ताकतवर पद दिए गए। बूटा सिंह, गुलाम नबी आजाद और जितेंद्र प्रसाद ऐसे नेताओं में गिने गए। यानी इंदिरा गांधी ने कांग्रेस में लोकतंत्र के खात्मे की जो प्रक्रिया शुरू की थी उसे राजीव गांधी ने आगे बढ़ाया।

सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाने की जिद्द

1991 में राजीव गांधी की मृत्यू के बाद सोनिया गांधी को पार्टी की कमान देने का फैसला हुआ। सोनिया गांधी तब कांग्रेस की सदस्य तक नहीं थीं। हालांकि सोनिया गांधी ने उस समय ये पद ठुकरा दिया। इसके बाद अगले चार साल तक कांग्रेस की कमान तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के पास रही। 1978 में ब्रह्मानंद रेड्डी के बाद पहली बार था जब पार्टी की अगुवाई गांधी परिवार से बाहर का कोई शख्स कर रहा था। राव के बाद दो साल पार्टी सीताराम केसरी की अगुवाई में चली।

तब तक 1996 के आम चुनाव आ चुके थे और इन चुनावों में सत्ताधारी कांग्रेस का प्रदर्शन काफी फीका रहा। पांच साल पहले 244 सीटें लाने वाली पार्टी इस बार 144 के आंकड़े पर सिमट गई और भाजपा का आंकड़ा 120 से उछलकर 161 पर पहुंच गया। कांग्रेस का एक धड़ा सोनिया गांधी को वापस लाने की कोशिशों में जुटा था। पार्टी की बिगड़ती हालत ने उसकी इन कोशिशों को वजन दे दिया। साल 1997 में सोनिया गांधी को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता दिलाई गई और इसके तीन महीने के भीतर ही वो अध्यक्ष बन गईं।

राहुल गांधी की कांग्रेस में ग्रोथ

कांग्रेस के अब तक हुए अध्यक्षों की सूची देखें तो सोनिया गांंधी राजनीति के लिहाज से सबसे ज्यादा नातजुर्बेकार थीं लेकिन, उन्होंने सबसे ज्यादा समय तक ये कुर्सी संभाली। वो करीब दो दशक तक कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं और अब फिर अंतरिम अध्यक्ष के रूप में पार्टी की कमान संभाले हुए हैं। इसी तरह राहुल गांधी 2004 में सक्रिय राजनीति में आए और तीन साल के भीतर उन्हें पार्टी महासचिव बना दिया गया।

साल 2013 में यानी राजनीति में आने के 10 साल से भी कम वक्त के भीतर राहुल गांधी कांग्रेस उपाध्यक्ष बन गए और साल 2017 में वो अध्यक्ष बनाए गए। साल 2019 में उन्होंने पद छोड़ा तो चुनाव नहीं हुए बल्कि सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष बन गईं। इसी तरह कोई चुनाव न जीतने के बाद भी प्रियंका गांधी कांग्रेस की महासचिव हैं।

यानी कि अब भी कांग्रेस उसी तरह चल रही है जैसी राजीव और इंदिरा गांधी के समय चलती थी। इसका मतलब ये है कि पार्टी के भीतर लोकतंत्र पहले की तरह अब भी गायब है। अगर इससे थोड़ा आगे बढ़ें तो ये भी कहा जा सकता है कि जब गांधी परिवार के भीतर ही नेतृत्व का निर्णय लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित नहीं है तो इसकी उम्मीद पार्टी के स्तर पर कैसे की जा सकती है।

राजीव-इंदिरा की तरह आज सोनिया गांधी के इर्द-गिर्द भी नेताओं की एक मंडली जमी रहती है और बाकियों को इसके जरिये ही उन तक अपनी बात पहुंचानी पड़ती है। राज्यों के चुनाव होते हैं तो विधायक दल का नेता चुनने का अधिकार केंद्रीय नेतृत्व को दे दिया जाता है जो अपनी पसंद का नाम तय कर देता है और संसदीय दल का नेता चुनने के मामले में भी ऐसा ही होता है।

अब कहां है परिवार का भरोसा

अभी तक कहा जाता था कि गांधी परिवार एक गोंद की तरह कांग्रेस को जोड़े रखता है क्योंकि इसका करिश्मा चुनाव में वोट दिलवाता है। लेकिन साफ है कि वो करिश्मा अब काम नहीं कर रहा। सच ये है कि पार्टी एक ऐसे परिवार की बंधक बनी हुई है जो दो आम चुनावों में पूरी तरह से फेल हो गई है। कांग्रेस को नेतृत्व से लेकर संगठन तक बुनियादी बदलाव की जरूरत है और तभी वो एक ऐसा विश्वसनीय विपक्ष बन सकती है जिसकी लोकतंत्र को जरूरत होती है।

Taranjeet

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A writer, poet, artist, anchor and journalist.