Headline

सियाचिन ग्लेशियर को लेकर अक्सर चर्चा होती रहती है। एक ओर भारत की सेना तो दूसरी ओर पाकिस्तान की सेना यहां हमेशा आंख गड़ाए बैठी हुई नजर आ जाती है।

TaazaTadka

2020 की दिल्ली में हिंसक घटनाएं क्या असल में 1984 से मेल खाती हैं?

देश की राजधानी में विरोध के नाम पर जो हिंसक घटनाएं हुई, उनमें जान माल का नुकसान हुआ और ये दिल्ली में होने वाले सबसे घाटक सांप्रदायिक हिंसाओं में से एक है
Logic Taranjeet 29 February 2020

देश की राजधानी में विरोध के नाम पर जो हिंसक घटनाएं हुई, उनमें जान माल का नुकसान हुआ और ये दिल्ली में होने वाले सबसे घाटक सांप्रदायिक हिंसाओं में से एक है। इसमें अब अगर गौर करें तो दिल्ली की हिंसक घटनाओं की टाइमिंग, माहौल और मानसिकता की तुलना 1984 में हुए सिख दंगों से भी की जा सकती है। लेकिन अगर हम इसकी तुलना 1984 के सिख दंगों से कर रहे हैं तो ये उससे ज्यादा नुकसान दे सकते थे और आगे दे सकते हैं।

1984 में नहीं हुआ था रीगन का दौरा

क्या 1984 में जो हुआ वो किसी अमेरिकी राष्ट्रपति की मौजूदगी में हुआ था। उस दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन थे, लेकिन वो तब भारत के दौरे पर नहीं थे, अगर होते तो क्या ऐसा होता शायद नहीं क्योंकि तब के नेताओं में और आज के नेताओं में जमीन आसमान का फर्क है।

1984 का पहले से नहीं था कोई अंदेशा

क्या 1984 में जो हुआ वो दंगा था, जिसमें दो पक्ष आमने-सामने लड़ रहे थे? नहीं ऐसा नहीं था, वो नरसंहार था और तब सिखों और उनकी संपत्तियों को जब जलाया जा रहा था तब दिल्ली और अन्य शहरों में पुलिस ने आंखें फेर रखी थीं। साल 1984 में किसी सज्जन कुमार की ओर से पहले से ही सिखों के सामने आकर चुनौती नहीं दी गई थी कि वो राजधानी छोड़ दें और तब रातोंरात मिट्टी के तेल, पेट्रोल, रॉड और डंडों के साथ ट्रक भर कर उपद्रवी दिल्ली में उतरे थे। वहीं 2020 में हिंसा भड़कने से पहले कपिल मिश्रा पुलिस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होकर खुली धमकी देता है।

1984 में ऐसा नहीं था इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, न ही सोशल मीडिया था

जब 1984 हुआ था तो सिर्फ एक रेडियो स्टेशन था और सरकार संचालित दूरदर्शन। उस वक्त इक्का-दुक्का प्रकाशनों को छोड़कर तीन दिन तक चले नरसंहार की अन्य अखबारों ने रिपोर्टिंग नहीं की थी। लेकिन दिल्ली में जो हुआ, उसे अनगिनत टीवी स्टेशनों, फेसबुक, ट्विटर, और ट्रम्प के दौरे की वजह से इंटरनेशनल मीडिया ने कवर किया। साल 2020 में सोशल मीडिया पर सर्कुलेट हो रहे वीडियो में पुलिस को भीड़ को कवर करते और लीड करते देखा गया। देश की राजधानी की पुलिस को अच्छी तरह पता था कि वो कैमरों में कैद हो सकते हैं और इसके बावजूद उन्होंने ये सब किया, ये अधिक फिक्र वाला है। अगर दिल्ली पुलिस से अपेक्षा की जाए कि वो इन वीडियो को प्रमाणित करेगी तो ये मासूमियत के अलावा और कुछ नही होगा।

तत्काल कोई चुनाव नहीं

साल 1984 की जघन्य घटनाएं लोकसभा चुनाव से पहले हुई थीं लेकिन उत्तर पूर्व दिल्ली में इस हफ्ते जो हुआ उसका चुनावी राजनीति से कोई जुड़ाव नहीं है। क्योंकि चुनाव तो खत्म हो गए थे ऐसे में इस हिंसा का मकसद तत्काल सत्ता हासिल करने जैसा नहीं है। इस हिंसक तबाही ने उस धारणा को तोड़ा है कि भारत में साम्प्रदायिक हिंसा वोट की राजनीति से जुड़ी होती है। दिल्ली में जो कुछ हुआ उसने मायने ही बदल दिए हैं। चुनाव हों या ना हों, जन समर्थन हो या ना हो, इस बर्बरता को कहीं भी इच्छा के मुताबिक अंजाम दिया जा सकता है। प्रभावित क्षेत्र के लोकप्रिय निर्वाचित प्रमुख सिर्फ दयनीय दर्शक बन कर रह गए जो जुबानी खर्च के नाम पर गांधीगिरी की दुहाई दे रहे हैं।

1984 में नहीं लगे थे पुलिस जिंदाबाद के नारे

साल 1984 में पुलिस जिंदाबाद के नारे कभी नहीं लगे थे लेकिन दिल्ली में छोटी हो या बड़ी, इस तरह की हिंसक घटनाओं में ये नई बात देखी जा रही है।

कोई पूर्ण विराम नहीं

दिल्ली में जो खून का खेल हुआ उसका संदेश खौफनाक है और भारत में उभर रहे नागरिक संकट पर फिलहाल कोई भी पूर्ण विराम लगाता नजर नहीं आ रहा। फिर चाहे वो अंतर्राष्ट्रीय दबाव हो, विश्व शक्तियां हों, लोकतंत्र के संस्थान हों या फिर चुनावी राजनीति के दबाव हों।

Taranjeet

Taranjeet

A writer, poet, artist, anchor and journalist.