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महाराष्ट्र विधान परिषद चुनाव होना क्या उद्धव ठाकरे की जीत है!

उद्धव ठाकरे की कुर्सी पर मंडराता खतरा एक कदम के लिए टल गया है। राज्यपाल के पत्र के बाद चुनाव आयोग ने महाराष्ट्र विधान परिषद की 9 सीटों पर 21 मई को चुनाव कराने के लिए कहा है। उद्धव ठाकरे की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन करने और अब राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की सलाह पर चुनाव आयोग की अधिसूचना से माना जा सकता है कि उद्धव ठाकरे की राजनीतिक ताकत बढ़ने लगी है? एक तो मौके की राजनीति होती है और एक जिसमें दूरगामी सोच के साथ राजनीतिक फैसले लिए जाते हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में अभी यही चल रहा है।

उद्धव ठाकरे मौके की राजनीति कर रहे हैं और देखा जाये तो भाजपा नेतृत्व दूरगामी सोच के साथ फैसले ले रहा है। दोनों ही राजनीतिक तौर पर सही हैं, लेकिन मौके की राजनीति जरूरी नहीं कि टिकाऊ भी हो। दूरगामी सोच की राजनीति में भी खतरा होता है कि बाद के हालात बदल गए तो? हो सकता है कांग्रेस 2014 तक कांग्रेस नेतृत्व का जोर भी मौके की राजनीति पर ही रहा हो और अरसे से भाजपा दूरगामी सोच के साथ राजनीति करती आ रही थी। दोनों दलों की मौजूदा स्थिति तो यही कहानी सुना रही है। 6 महीने पहले भी उद्धव ठाकरे मौके की ही राजनीति कर रहे थे। तब भाजपा भी पहले मौके की राजनीति से बचती चली आ रही थी, लेकिन अचानक देवेंद्र फडणवीस का मन डोल गया और तीन दिन के मुख्यमंत्री बन कर ऐसा हाल कर लिया कि अब तो मौके की छाछ भी फूंक फूंक कर पी रहे हैं। जब राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने चुनाव आयोग को पत्र लिखा तो देवेंद्र फडणवीस की प्रतिक्रिया रही कि ये अच्छा हुआ है क्योंकि राज्यपाल की नियुक्ति वाले विधायक का मंत्री या मुख्यमंत्री बनना ठीक नहीं होता।

राज्यपाल के आग्रह पर चुनाव आयोग ने फौरन मीटिंग कर अधिसूचना जारी कर दी। अब महाराष्ट्र विधान परिषद की 9 सीटों पर 21 मई, 2020 को चुनाव होने जा रहा है। कई कोशिशों के बाद जब कोई रास्ता नहीं निकला तो उद्धव ने सीधे प्रधानमंत्री को फोन लगाया और कहा कि महाराष्ट्र में राजनीतिक अस्थिरता फैलाने की कोशिश हो रही है और बहुत जरूरी है कि वो इस मामले में दखल दें। हालांकि इसका मतलब ये नहीं है कि भाजपा उद्धव ठाकरे को अब पांच साल के लिए सरकार चलाने देगी।

लेकिन क्या ये उद्धव ठाकरे की बढ़ती राजनीतिक ताकत का नतीजा नहीं है?

है भी – और नहीं भी है। उद्धव ठाकरे को ये दिन अभी इसलिए देखने पड़े क्योंकि अचानक से कोरोना वायरस का संकट खड़ा हो गया। वैसे भाजपा के कुछ नेता उद्धव ठाकरे और शिवसेना को ही इसका जिम्मेदार बता रहे थे। अगर उद्धव ठाकरे चाहते तो कोई भी एमएलसी इस्तीफा दे देता और वो कब के विधायक बन चुके होते – लेकिन ऐसा नहीं किया। हो सकता है मान कर चल रहे हों कि जब 24 मई से पहले 9 सीटों के लिए चुनाव होना निश्चित हो तो किसी और को इस्तीफा देने की क्या जरूरत है। ये ठीक है कि कोरोना संकट के कारण ही उद्धव ठाकरे संवैधानिक संकट में फंस गए, लेकिन ये भी 100 फीसदी सच है कि कोरोना वायरस और लॉकडाउन के चलते ही उन्हें मुख्यमंत्री बने रहने का रास्ता भी साफ हुआ है। अगर भाजपा नेतृत्व हरकत में आ जाता तो उद्धव ठाकरे को कुर्सी पर बैठे रहने और विरोधी राजनीतिक गठबंधन को सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा की तरह से ऐसा पास मिलना नामुमकिन ही था। शिवसेना भले ही कुछ देर के लिए खुश हो ले कि भाजपा को उद्धव ठाकरे का लोहा मानने के लिए मजबूर होना पड़ा है। लेकिन कहा जा सकता है कि ये महज चार दिन का ही ख्याली पुलाव है।

खतरा टला है, खत्म नहीं हुआ है

उद्धव ठाकरे को कुर्सी बचाने का मौका मिल जाना बता रहा है कि भाजपा अभी बैकफुट पर है क्योंकि ये वक्त का तकाजा है। असल बात तो ये है कि भाजपा को गर्म लोहे का इंतजार है जब वार करे तो अचूक हो, बेकार न चला जाए। अगर उद्धव ठाकरे की सरकार गिर जाती तो लोगों में साफ साफ मैसेज जाता कि भाजपा ने ऐसा कर दिया। उद्धव ठाकरे के पास भी कुर्सी पर बने रहने के कुछ उपाय बचे हुए थे, लेकिन वो सभी जोखिम भरे थे। कामयाबी की शर्त महाविकास आघाड़ी का अटूट रहना और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व को सपोर्ट करना भी रहा। उद्धव ठाकरे चाहते तो एक दिन इस्तीफा देकर अगले दिन फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ ले लेते।

इसमें तो कोई दोराय नहीं होनी चाहिए कि उद्धव ठाकरे ने इमरजेंसी के हालात का राजनीतिक फायदा उठाया है। क्योंकि उद्धव ठाकरे ने फोन कर प्रधानमंत्री मोदी से मदद मांगी थी, इसलिए निराश होने की कम ही संभावना रही होगी और प्रधानमंत्री मोदी की आश्वस्ति के चलते अमित शाह भी धैर्य के साथ सब कुछ मूकदर्शक की तरह देख रहे होंगे। वैसे भी ये अमित शाह ही हैं जिनकी वजह से उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ पाए थे। वरना, अगर गठबंधन में तनाव और दरार की नौबत से पहले अमित शाह पहले की तरह मातोश्री हो आए होते कहानी दूसरी ही होती।