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इंसेफेलाइटिस लेटार्गिका : 100 साल बीत जाने पर भी लाइलाज बनी हुई है

समूची दुनिया आज कोरोना वायरस के संक्रमण की वजह से होने वाली बीमारी कोविड-19 की जद में है। इसकी वजह से जहां 15 लाख से भी अधिक लोग WHO के अनुसार संक्रमित हो चुके हैं और लगभग एक लाख लोगों की जान चली गई है । वहीं भारत में भी कोरोना मरीजों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही है। कोरोना का अब तक कोई इलाज नहीं मिल पाया है। मगर आपको शायद यह जानकर हैरानी होगी कि दुनिया में एक ऐसी भी बहुत पुरानी बीमारी भी है। जिसका इलाज 100 वर्षों के बाद भी विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में इतनी तरक्की कर चुकी दुनिया ढूंढ़ पाने में नाकाम रही है। 1917 में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही एक रहस्यमयी बीमारी भी दुनिया में सिर उठा रही थी। इस रहस्यमयी बीमारी का नाम था इंसेफेलाइटिस लेटार्गिका (Encephalitis Lethargica), जो आज तक लाइलाज है। यह उसी दौर की बीमारी थी जब इन्फ्लुएंजा (influenza) महामारी स्पेनिश फ्लू भी शुरू हो गई थी ।

न्यूरोलाॅजिस्ट कंस्टेंटिन वाॅन इकोनोमो ने दिया था नाम

सबसे पहले इसके बारे में वियना के न्यूरोलाॅजिस्ट कंस्टेंटिन वाॅन इकोनोमो (Constantin von Economo) ने बताया था। उन्होंने इस बीमारी को इंसेफेलाइटिस लेटार्गिका नाम दिया था। इसके लक्षण बहुत अजीब थे। इसका शिकार होने पर लोग सुस्त हो जाते थे। दिनभर उन्हें सोने का ही मन करता था। जिन लोगों में इस बीमारी का संक्रमण गंभीर रूप ले लेता था, वे दिनभर सोते ही रहते थे। कई लोगों ने बताया था कि वे कुर्सी पर बैठते नहीं थे कि नींद उन्हें अपने आगोश में ले लेती थी। इसके और भी गंभीर लक्षणों में सिर दर्द होना, उदसीनता आना, लकवा मार देना और आंखों की मांसपेशियों का अजीब तरह से घूमना शामिल थे। कुछ लोगों ने बताया कि उनके चेहरे पर अजीब तरह के घुमाव हो रहे थे। कुछ महीनों के बाद कई मरीज पार्किंसन के जैसे लक्षणों के शिकार हो गये।

पेपर हुआ था प्रकाशित

दो साल पहले जर्नल न्यूरोलाॅजी (Neurology) में इस बीमारी के पहली बार सामने आने के 100 वर्षों के बाद इस बीमारी के बारे में एक पेपर प्रकाशित किया गया था। इसमें इंसेफेलाइटिस लेटार्गिका के मूल स्वरूप के बारे में बताया गया था। इसके लेखकों बार्ट लटर्स (Bart Lutters), पाॅल फोली (Paul Foley) और पीटर जे कोहलर (Peter J. Koehler) ने इसमें बताया था कि किस तरह से इस बीमारी का प्रभाव केवल दवाईयों पर ही नहीं, बल्कि न्यूरोसाइंस पर भी पड़ा था।

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नींद वाली बीमारी

यह नींद से संबंध रखने वाली एक बीमारी रही है। इसका नाम वोन इकोनोमो ने इंसेफेलाइटिस लेटार्गिका रखा था। इसका यह नाम रखना बेहद रोचक रहा होगा। शोधकर्ताओं ने जब इसके नाम के पीछे का अध्ययन किया तो उन्हें ब्रेन के नींद से जुड़े हिस्सों के बारे कई जरूरी जानकारी मिली। वोन इकोनोमा ने पाया था कि ओक्युलोमोटर न्यूक्लाई (oculomotor nuclei) के समीप तीसरे वेंट्रिकल की दीवार से इंसेफेलाइटिस लेटार्गिका के लक्षणों का नाता था। बाद में उन्होंने यह भी पाया कि इंसेफेलाइटिस लेटार्गिका के 10 प्रतिशत मामलों में इन्सोम्निया (insomnia) भी पाया गया। इस तरह से अपने अध्ययन में उन्होंने यह जान लिया कि इस बीमारी में नींद को नियंत्रित करने वाले दिमाग में स्थित केंद्र में विकार पैदा हो जाता है। इसकी वजह से सेरेब्रल कोर्टेक्स में सोने के दौरान बाधा उत्पन्न हो जाती है, जिसकी वजह से चेतन यानी कि सजग रहने की क्षमता घट जाती है।

इकोनोमो ने बताया था

हालांकि वोन इकोनोमो ने जो ब्रेन में नींद से जुड़े केंद्र को लेकर सिद्धांत दिया था, बाद में उसे सही नहीं पाया गया। बाद में यह पता चला कि नींद को जो रोकने वाला केंद्र मस्तिष्क में मौजूद है, जिसके कि अराउजल सेंटर (arousal center) भी कहते हैं, वह सक्रिय होकर ब्रेन को जगे रहने को मजबूर करने का काम करता है। ब्रेन का यही हिस्सा जब क्षतिग्रस्त हो जाता है तो इस स्थिति को इंसेफेलाइटिस लेटार्गिका के नाम से जाना जाता है। शोधकर्ताओं ने तो काफी कोशिश की है इस बीमारी को समझने को। इसकी भले ही कोई खास जानकारी नहीं मिल सकी, मगर इस पर शोध करने के दौरान शोधकर्ताओं को पार्किंसन को समझने में जरूर मदद मिल गई। पोस्ट-इंसेफेलिक पार्किंसन (post-encephalic Parkinson’s) के मरीजों के पोस्टमार्टम के बाद ब्रेन के अध्ययन से यह पता चला कि इन मरीजों में सब्सटेंसिया नाइग्रा नामक हिस्सा क्षतिग्रस्त हो जाता है। पहले से भी यह माना जा रहा था, जिसकी पुष्टि इस शोध के बाद हो गई थी।

तब जगी थी उम्मीद

साठ के दशक में उम्मीद की एक किरण जगी इंसेफेलाइटिस लेटार्गिका को नियंत्रित करने की, इसका इलाज करने की। इस दौरान एल-डोपा (L-DOPA) नामक एक दवाई विकसित कर ली गई, जिसमें कि पार्किंसन के लक्षणों को ठीक करने की क्षमता थी। इस दवाई का इस्तेमाल पोस्ट-इंसेफेलिक मरीजों पर भी किया गया। ये वे मरीज थे, जो 40 साल से इससे जूझ रहे थे। ओलिवर सैक (Oliver Sacks) की मशहूर किताब अवेनिंग्स (Awakenings) में बताया गया है कि एल-डोपा का कुछ मरीजों में तो प्रभावी असर देखा गया था, मगर यह ज्यादा नहीं टिक सका था।

आज भी रहस्य ही है

अब 100 साल से ज्यादा बीत चुके हैं। अब तक पता नहीं चल पाया है कि आखिर इंसेफेलाइटिस लेटार्गिका नामक बीमारी किस वजह से होती है। एक थ्योरी तो यह भी कहती है कि वर्ष 1918 में जो स्पेनिश फ्लू नामक बीमारी आई थी, उसका इसी बीमारी के समकालीन होना कोई संयोग की बात नहीं हो सकती है। दोनों बीमारियों का आपस में जुड़ाव रहा है। इन्फ्लुएंजा वाली बीमारी यानी कि स्पेनिश फ्लू के कुछ मरीजों में दिमाग पर भी असर होते हुए भी देखा गया था। ऐसी ही चीजें इंसेफेलाइटिस लेटार्गिका में भी होती है। कुछ ने अनुमान लगाया कि पोलियो वाले वायरस से इसका संबंध है। फिर भी आज तक इंसेफेलाइटिस लेटार्गिका की न तो वजह पता चल पाई और न ही इसका इलाज ढूंढ़ा जा चुका है। विज्ञान और चिकित्सा क्षेत्र की इतनी तरक्की भी इसका इलाज ढूंढ़ पाने में नाकाम रही है, जबकि दुनियाभर में लाखों लोग इसकी चपेट में आज भी हैं।