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किसान की नाराजगी से सरकार को कुछ खास फर्क नहीं पड़ता

इस वक्त दिल्ली के चारों ओर लाखों की संख्या में किसान जमा हैं जो दिल्ली में आकर सरकार के खिलाफ अपना गुस्सा प्रकट करना चाहते हैं.
Logic Taranjeet 2 December 2020

दिल्ली इस वक्त काफी गंभीर स्थिति में खड़ी है, एक तरफ तो कोरोना की मार और दूसरी तरफ गुस्साए किसान। संसद में एक ऐसा बिल पास हुआ जो किसानों के खिलाफ है और संसद दिल्ली में है तो किसानों ने कर दिया दिल्ली कूच और अब कई दिनों से वो दिल्ली की सीमाओं पर बैठे हैं और रोज लाठी-डंडे खा रहे हैं। इस वक्त दिल्ली के चारों ओर लाखों की संख्या में किसान जमा हैं जो दिल्ली में आकर सरकार के खिलाफ अपना गुस्सा प्रकट करना चाहते हैं, लेकिन सरकार उन्हें आने नहीं देना चाहती है।

सरकार के पास है 2 ही विकल्प

जिस तरह से किसान कई दिनों से सीमाओं पर खड़े हैं, तो वो साफ दर्शाता है कि सरकार के लिए स्थिति काफी खराब है और इससे बाहर निकलने के लिए अब 2 ही विकल्प बचे हैं। पहला कि सरकार बल का इस्तेमाल करे और इंतजार करे कि कब किसान थक कर वापिस जाता है। दूसरा कि सरकार किसानों की मांगों को मान लें। पहला विकल्प केंद्र सरकार का अक्सर इस्तेमाल किए जाने वाला तरीका है। साल 2014 से किसान कई मुद्दों पर विरोध करते रहे हैं जिसमें भूमि अधिग्रहण, किसानों की आत्महत्या, जीएमओ, सिंचाई परियोजनाओं में देरी, बेहतर एमएसपी, ऋण माफी, बिजली की आपूर्ति और बिजली दर जैसे कई और मुद्दे शामिल है।

2018 में भी कर चुके हैं किसान विरोध

2018 में 70 हजार से ज्यादा किसान अपनी मांगें नहीं सुने जाने पर धीरज खो बैठे थे और दिल्ली की सीमाओं पर तूफान खड़ा कर दिया था। वो अपनी फसल के लिए बेहतर एमएसपी की मांग कर रहे थे और इस बात पर विरोध जता रहे थे कि सरकार की कीमतें 40 फीसदी तक कम हैं।

साल 2018 में किसान मांग कर रहे थे कि आत्महत्या करने वाले किसान परिवार के किसी एक सदस्य को नौकरी दी जाए और प्रदर्शनकारियों को तब दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए उन पर लाठीचार्ज किए गये थे और आंसू गैस के गोले छोड़े गये थे। पहले की ही तरह मामला जोर पर है और वर्तमान संकट साफ है। दिल्ली ने जमीनी हकीकत और दुर्दशा का शिकार लोगों से जो दूरी बना रखी है वो इसका प्रमाण है। अगले राष्ट्रीय आम चुनाव में चार साल बाकी हैं और सत्ता को लेकर सरकार की धारणा को, जो वास्तव में गलत है, कोई खतरा नहीं है। इसके परिणाम गरीबों, किसानों और उन लोगों को भुगतने पड़ सकते हैं जो राष्ट्रीय राजमार्ग पर वाटर कैनन का सामना कर रहे हैं।

सरकार के प्रस्ताव पर क्यों भरोसा नहीं करते किसान?

इस वक्त किसान एमएसपी व्यवस्था को तहस-नहस होने से बचाने के लिए और ग्रामीण बाजारों पर कॉर्पोरेट कब्जे के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। जो कि सितंबर 2020 में तीन किसान बिलों के पारित होने के बाद बनी है। देश के अलग अलग इलाकों में किसान अपना अनाज एमएसपी से कम कीमत पर बेच रहे हैं क्योंकि मंडियों के बाहर कीमत तय करने की कोई व्यवस्था नहीं है। किसान संगठन जानते हैं कि सरकार की कॉर्पोरेट के साथ सांठगांठ है और वो किसान बिल में बदलाव करने में इच्छुक नहीं है।

इसके साथ-साथ भाजपा ने किसानों की दशा सुधारने में दिलचस्पी कम रखते हुए अपनी छवि कॉर्पोरेट समर्थक की बना रखी है। किसानों को भूमि और खेती से दूर करने की योजना और गांवों का तेजी से शहरीकरण करने पर फोकस के तौर पर का किसान बिलों को देखा जा रहा है। ग्रामीण भारत के अविश्वास का ये एक और कारण है। कोविड लॉकडाउन के वक्त प्रवासी संकट के दौरान जब लाखों किसानों को पैदल सैकड़ों किलोमीटर चलकर अपने घरों को लौटना पड़ा था तब ये बात खुलकर सामने आई थी कि न तो उन्हें उनकी परवाह सत्ता वालों को है और न ही कारोबार जगत को है। शहरीकरण किसानों के शोषण का एक और तरीका होगा जो उन्हें सस्ती जमीन और सस्ते श्रम का मालिक बनाएगा।

केंद्र सरकार को नहीं है कोई डर

केंद्र सरकार को निश्चित रूप से ये देखना होगा कि वो किसान वोटरों की नाराजगी झेल पाएगी या नहीं। आंकड़े बताते हैं कि किसानों के प्रदर्शनों के बावजूद भाजपा ने पिछला आम चुनाव ग्रामीण भारत में 37.6 प्रतिशत वोट हासिल करते हुए जीता था। साल 2014 के चुनावों के मुकाबले ये 6 प्रतिशत ज्यादा था। इसके अलावा सबसे ज्यादा संकट की घड़ी में मीडिया ने सरकार का साथ दिया है। दिल्ली में किसानों के साथ जब ऐसा सलूक किया जा रहा था, तो प्राइम टाइम से किसान गायब थे।

Taranjeet

Taranjeet

A writer, poet, artist, anchor and journalist.