किसानों से जुड़े 3 बिल संसद में पास हुए और देश के किसान सड़कों पर आ गए। सरकार ने किसानों को पूरी तरह से परे रख कर उनके हितों का बिल बना दिया और संसद में विपक्ष को परे रख कर इसे पास करा लिया। यहां तक की मोदी सरकार ने तो अपने गठबंधन के साथियों को भी परे रख दिया। एक वक्त तक भारतीय जनता पार्टी क सबसे पुराना साथी अकाली दल अब भाजपा के साथ एनडीए में नहीं है। लगातार भाजपा अपने सहयोगी खोती जा रहा है, पहले तेलुगू देशम पार्टी, फिर शिवसेना और अब अकाली दल।
कहते हैं कि बड़े बुजुर्गों की जमापूंजी अगली पीढ़ि खराब कर देती है। इस वक्त की राजनीति में यही हो रहा है। भारतीय जनता पार्टी के बुजुर्गों ने जो दोस्ती बनाई थी वो अबके नेताओं ने खराब कर दी है, तो कांग्रेस ने जो वोटबैंक बनाया था वो भी खराब कर दिया है अगली पीढ़ि ने।
खैर मामला कांग्रेस का नहीं मुद्दा सरकार, किसानों और अकाली दल का है। तो अकाली दल ने गठबंधन से नाता तोड़ दिया और कुद सड़कों पर उतर कर विरोध करना शुरु कर दिया है। पंजाब में तो सरकार, विपक्ष दोनों ही विरोध कर रहे हैं, जी हां कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी धरना दिया, अकाली दल के सुखबीर बादल ने भी धरना दिया और मजबूर किसान तो दे ही रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए कहा जाता है कि वो बहुत अहम में रहते हैं। उनके कई पुराने साथियों ने ये बात कही है। चाहे वो चंद्रबाबू नायडू थे, शिवसेना ती या अब अकाली दल है। मोदी सरकार को किसी के आने या जाने से फर्क नहीं पड़ता है। बात अगर अकाली दल की करें तो किसानों के हितों की बात करना बादल परिवार के लिए मजबूरी बन गई है।
अगर पिछले कुछ सालों की राजनीति पर बात करें तो शिरोमणि अकाली दल की नाराजगी भाजपा से किसानों के मुद्दे पर तो थी ही साथ ही वो और भी बातों पर सरकार से नाराज थी। किसानों से संबंधित मौजूदा कानूनों को लेकर अकाली दल के नेता ही महीनेभर पहले तक किसानों को अध्यादेश के समर्थन में समझा रहे थे, इसे किसानों के लिए हितकारी बता रहे थे, लेकिन एक दिन अचानक से हरसिमरत कौर ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और फिर पार्टी ने गठबंधन से अलग होने का निर्णय कर लिया।
सुखबीर बादल ने अगस्त के महीने में कहा था कि कृषि मंत्री ने हमें आश्वस्त किया है कि किसानों को कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन फिर सितंबर में उन्हें ऐसा क्या महसूस हुआ कि उन्होंने संसद में विरोध करना शुरु कर दिया। किसान शुरु से ही इस कानून के खिलाफ थे, तो फिर पहले क्यों शिरोमणी अकाली दल खामोश रहा?
दरअसल इसका असल मकसद सिर्फ राजनीति है, अकाली दल का दबदबा सिर्फ पंजाब में ही है। और वो अकेली ऐसी पार्टी है जो लगातार 2 बार सत्ता पर काबिज हुई है। ऐसे में पंजाब और हरियाणा के किसान इन कृषि अध्यादेशों, जो अब कानून बन गए हैं के विरोध में सड़कों पर हैं। अगर अकाली दल इस समय इनका समर्थन नहीं करती, तो किसान इसे अपने हितों के विरोध में खड़ी पार्टी मानने लगेंगे। इसका सीधा फायदा कांग्रेस और बाकी दलों को मिलता।
शिरोमणि अकाली दल और भाजपा के रिश्तों में खटास बहुत पहले से आ गई थी। बीते समय में ऐसे कई मुद्दे सामने आए, जैसे जल संधि का, कश्मीर में पंजाबी बोली का जब एनडीए में अकाली दल की बिल्कुल नहीं सुनी गई। अकाली दल बहुत पहले से सरकार में बैकफुट पर था बस उसे एक सही मौके की तलाश थी इससे बाहर निकलने के लिए, जो अब उसे मिल गया है। संसद में महज 5 सांसद अकाली दल के हैं जबकि पंजाब में ये बीती सरकार में सत्ता इनके हाथ में थी।
ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि शिरोमणि अकाली दल एक क्षेत्रीय पार्टी है और किसान इस पार्टी की रीढ़ हैं। हालांकि प्रकाश सिंह बादल से लेकर सुखबीर सिंह बादल के बदले नेतृत्व में पार्टी में बहुत कुछ जरूर बदल गया है, पार्टी के नेता अपने वोट बैंक से कट गए हैं। जमीनी हकीकत से दूर हो गए हैं। लेकिन 1984 के दंगों के बाद अकाली दल अपने सिख वोट बैंक के साथ अकेले सत्ता में आने की स्थिति में नहीं थी। कांग्रेस के खिलाफ उसने भाजपा को चुना क्योंकि भाजपा उसके वोट बैंक को छीनता नहीं बल्कि बढ़ाता।
केंद्र सरकार ने इसी महीने कश्मीरी, डोगरी और हिन्दी को कश्मीर की आधिकारिक भाषाओं में शामिल किया। अकाली दल इसमें पंजाबी को भी शामिल करने के पक्ष में था क्योंकि कश्मीर में पंजाबी बोलने वाले लोग हैं और ये इस राज्य की पुरानी भाषा रही है। पार्टी प्रमुख बादल ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह को भी लिखा लेकिन सुनवाई नहीं हुई। वहीं बीते साल संसद के मानसून सत्र में सरकार ने अकाली दल के विरोध के बावजूद अंतर-राज्यीय नदी जल विवाद (संशोधन) विधेयक को लोकसभा से पारित करा लिया।
ये विधेयक अभी राज्यसभा में दूसरे कारणों से लंबित है। इसमें जल विवादों का तय समय के भीतर निपटारे का प्रावधान है। अकाली दल को लगता है कि इससे पंजाब के हिस्से का पानी अन्य राज्यों को जा सकता है। इसके अलावा नाराजगी का एक कारण हरियाणा में अकाली के एकमात्र विधायक का भाजपा में शामिल होना भी है। अकाली दल ने तब इसे गठबंधन की मर्यादा का उल्लंघन करार दिया था। लोकसभा चुनावों के दौरान अकाली दल को अपने मुताबिक कुछ सीटें नहीं मिली थीं। अमृतसर और होशियारपुर सीट पर भाजपा ने अपने नेताओं को टिकट दिया।
जबकि अकाली दल यहां अपने नेताओं को टिकट देना चाहता था। वहीं दिल्ली विधानसभा चुनाव और हरियाणा में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान भी अकाली दल और भाजपा के बीच में उठापटक दिखी थी। हरियाणा में अकाली दल ने भाजपा की जगह पर इनेलो के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था।
पंजाब में आम आदमी पार्टी के आने के बाद से अकाली दल को काफी ज्यादा नुकसान हुआ है। पंजाबी वोट बैंक पर सीधा सेंधमारी कर आप ने अकाली दल को 2017 के चुनाव में बड़ा मुकाबला दिया था और काफी सीटें भी अपने नाम की थी। वहीं पंजाब में मार्च 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसा माना जा रहा है कि अकाली दल किसानों का वोट बैंक खोना नहीं चाहता।
ऐसे में इस पार्टी के लिए भाजपा से निकलना ही सही रास्ता था। क्योंकि अकाली दल अगर मंत्रिमंडल में शामिल रहता, तो कैबिनेट का फैसला उसे मानना पड़ता। उनके पास इस्तीफा देने के अलावा कोई दूसरा चारा ही नहीं बचा था। अकाली दल इस पूरे घटनाक्रम को भले ही किसानों के समर्थन में त्याग बना कर पेश कर रही हो लेकिन ये उसकी सियासी मजबूरी है।