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क्या कांग्रेस पार्टी की आत्मा और शरीर दोनों मर गए हैं दिल्ली में हारने के बाद ?

एक वक्त था जब दिल्ली में ब्रिटिश शासन होता था और उसे हटाने वाली कांग्रेस आज खुद इस हाल पर आ गई है कि वो पूरे राज्य में खत्म हो गई है। न तो लोकसभा में और न ही विधानसभा में एक भी सीट कांग्रेस के खाते में गई। कांग्रेस का दिल्ली में हारना कोई पहली घटना नहीं है लेकिन हारने के बाद की बेचैनी का मर जाना कांग्रेस पार्टी के मर जाने के जैसा है। ऐसे में सवाल तो बनता है कि क्या कांग्रेस अपनी उम्र पूरी कर चुकी है और अब कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए। गिरना-उठना, संभलना और चलना, इसके राजनीति में ढेरों उदाहरण हैं, कांग्रेस के लिए हार से ज्यादा हार को सामान्य और सहज लेना चिंताजनक दिखता है। इतनी बड़ी हार के बाद भी अगर कांग्रेस के अंदर बेचैनी नहीं है तो समझ लेना चाहिए कि कांग्रेस की आत्मा मर चुकी है, इसीलिए शरीर में कोई हलचल नहीं हो रही है।

2 चुनाव में शुन्य पर सिमटने के बाद भी रवैया निराशाजनक

दिल्ली में लगातार 2 विधानसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस के नेताओं का जिस तरह से रवैया दिख रहा है, वो कांग्रेस के लिए कोई अच्छा भविष्य नहीं दिखा रहा है। जहां पर भी कांग्रेस चुनाव हारती है वहां कहा जाता है कि कांग्रेस के पास संगठन नहीं था। दिल्ली चुनाव के नतीजे से ठीक पहले कांग्रेस के जनार्दन द्विवेदी के बेटे समीर द्विवेदी ने भाजपा जॉइन कर ली थी। जो शख्स लगभग 13 साल तक कांग्रेस जैसी पार्टी का संगठन महासचिव रहा हो, उसका बेटा भाजपा में शामिल हो जाए तो उससे पता लगता है कि कांग्रेस का संगठन बचा ही नहीं है। किसी भी पार्टी का संगठन उसके विचार को लेकर लोगों के पास जाती है और अपने वोट बैंक को तैयार करती है।

कांग्रेस की आत्मा और शरीर दोनों खत्म

हर संगठन के पीछे उसका विचार जरूरी होता है, जिससे लोगों को साथ में जोड़ा जाए। अगर हम कहें कि विचार आत्मा होती है और संगठन शरीर, तो वो गलत नहीं होगा। लेकिन जिस जगह पर कांग्रेस इस वक्त खड़ी है तो न तो उसके विचार को कोई मान रहा है और न ही संगठन मजबूत है। पुराने नेता भाजपा और नरेंद्र मोदी की तारीफ कर रहे हैं जिससे साफ होता है कि अब कांग्रेस पार्टी की आत्मा और शरीर दोनों ही खत्म हो चुके हैं। ऐसे में अब इसको दफ्न कर देने का वक्त आ गया है। हालांकि हिंदू धर्म में पुनर्जन्म का स्थान है, तो ऐसे में निराश न होकर पुनर्जन्म के लिए ही सही कांग्रेस को भंग करने का वक्त आ गया है।

जिस अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस के वोट बैंक को ही झाड़ू लगा दिया, उसी केजरीवाल की जीत पर कांग्रेस की खुशी बहुत कुछ कहती है। आखिरी बार कांग्रेस को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जैसे-तैसे सरकार बनाने में सफलता मिली, लेकिन राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपनी हर सभा में कहते हैं कि राजस्थान की जनता ने इस बार अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाने के लिए वोट दिया है। किसी पार्टी के संगठन का मुखिया कहे किस चेहरे पर वोट मिलता है तो इससे ज्यादा शर्मनाक बात किसी संगठन के लिए नहीं हो सकती है। कांग्रेस में जब विचार नाम की कोई चीज बची ही नहीं है तो फिर पार्टी की जरूरत क्यों है?

मतलब के लिए नेता है कांग्रेस पार्टी में

रीता बहुगुणा को जब कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया तो वो तुरंत ही भाजपा में चली गई। वहीं हेमंत विश्व शर्मा असम में दूसरे नंबर के पार्टी के नेता रहे मगर मुख्यमंत्री का पद नहीं मिला तो भाजपा के दरवाजे पर चले गए। अगर इन सब उदाहरणों पर आप गौर करें तो आपको लग सकता है कि कांग्रेस कोई पार्टी नहीं बल्कि स्वार्थी तत्वों का एक समूह है जो कि मतलब के लिए एक पार्टी के अंदर काम कर रहा है। इनमें से ज्यादातर लोगों ने अपने बेटे और बेटी की भविष्य की चिंता में पार्टी छोड़ी है और पार्टी में जो बच गए हैं वो किसी नेता के बेटा और बेटी ही बचे हैं। क्या कांग्रेस के नए नेताओं की फौज में ऐसा कोई नेता आपको दिख रहा है जिसे कांग्रेस के विचार ने प्रभावित कर संगठन के कार्यकर्ता के रूप में स्थापित किया हो।

राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, मिलिंद देवड़ा, रणदीप सुरजेवाला, दीपेन्द्र हुड्डा, आरपीएन सिंह, प्रिया दत्त, जतिन प्रसाद। ये सारे कांग्रेसी नेताओं के बेटे और बेटियां हैं जिन्हें थाली में परोस कर पार्टी का टिकट दिया गया और जीतने पर पद की गारंटी भी। और ये ही आने वाले वक्त में कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता है जिनके नाम पर 10 साल बाद पार्टी चुनाव लड़ रही होगी। क्या एक पार्टी को सिर्फ इसलिए जिंदा रखना चाहिए क्योंकि वहां पर काम करने वाले नेताओं के बेटे- बेटियों को रोजगार मिलता है।

भाजपा के विकल्प में कांग्रेस नहीं दिखती

जब भाजपा के विकल्प के रूप में जनता तृणमूल कांग्रेस, आप, झामुमो, एनसीपी और हरियाणा जननायक जैसी पार्टियों को वोट देने लगे तो कांग्रेस को समझ जाना चाहिए कि पार्टी के डीएनए में गड़बड़ी है। इस पार्टी में संघर्षों से तपे हुए और विचारधारा की घुट्टी में घुटे हुए नेता हुआ करते थे, लेकिन आज वो नजर नहीं आता है। जो पार्टी इतने सालों में अपने लिए एक दमदार पार्टी अध्यक्ष नहीं खोज सकी तो वो जनता के बीच में कैसे जा सकती है।