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ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें हिलाने वाले इस विद्रोह को कभी भुला नहीं पाएगा इतिहास

देश जब परतंत्रता की जंजीरों में जकड़ा था तो उस वक्त भारत को आजाद कराने के लिए कई आंदोलन हुए, जिनमें से एक गरीब किसानों का भी आंदोलन था। किसानों के इसी आंदोलन को हम नील विद्रोह के नाम से जानते हैं। सबसे अहम बात ये रही कि किसानों का यह विद्रोह बेहद कामयाब रहा था। ब्रिटिश हुकूमत भी झुक गई थी किसानों के इस विद्रोह के आगे।

अंग्रेज तो चाहते ही थे भारत को अपना उपनिवेश बनाना। यहां वे लगातार उपनिवेशवाद को बढ़ावा दिये जा रहे थे, जिनमें से एक यह भी था कि यूरोप की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए भारत में किसानों से खेती करवाना। अंग्रेजों ने किसानों को 18वीं शताब्दी के अंत तक अफीम और नील की खेती करने के लिए मजबूर करना शुरू कर दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसके लिए किसानों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। नील का इस्तेमाल छपाई के लिए ब्रिटेन में किया जाता था। नील की बढ़ती मांग के अनुसार अंग्रेजी सरकार ने बंगाल और बिहार में नील की खेती का क्षेत्र बढ़ाना शुरू कर दिया। दुनियाभर में भारत की उच्च गुणवत्ता वाली नील फैल गई और इसकी मांग भी बढ़ने लगी।

नौकरियां तक छोड़ी

जहां 1788 तक ब्रिटेन की ओर से आयात की जा रही नील में भारतीय नील का हिस्सा केवल 30 फीसदी था, वहीं 1810 के आसपास भारतीय नील का हिस्सा ब्रिटेन द्वारा आयात की जाने वाली नील में 95 फीसदी तक पहुंच गया। इससे कंपनी के अधिकारियों को खूब आमदनी होने लगी। कई ब्रिटिश अधिकारियों ने तो नौकरी ही छोड़ दी। पट्टे पर जमीन लेकर उन्होंने नील का बागान लगाना शुरू कर दिया। नील को उगाने के लिए कंपनी और बैंक की ओर से कर्जा तक दिया जाने लगा। अपनी जमीन में मजदूरों को लगाकर बागान के मालिक नील पैदा करवाते थे और मजबूरन अपनी जमीन जमीदारों लीज पर देनी पड़ती थी। साथ ही रैयतों से कर्जा लेने के बदले अपनी जमीन के 25 फीसदी हिस्से पर नील की खेती करने संबंधी शर्त पर हस्ताक्षर करवा लिये जाते थे। किसानों को बड़ी मेहनत करनी पड़ रही थी। जहां वे फसलों की कटाई करके बागान मालिकों को देते थे, कर्जे का दूसरा चक्र शुरू हो जाता था। वह वक्त भी आया, जब किसानों पर नील की खेती करने के लिए अत्याचार किये जाने लगे। उनके साथ हिंसा होने लगी।

तेजी से प्रसार

नील की जड़ें गहरी होने के कारण मिट्टी से सारी ताकत छीनने के बाद यहां धान उगाना संभव नहीं रह जाता था। ऐसे में बंगाल के किसान अब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आक्रोशित होने लगे। वर्ष 1859 में बंगाल में के हजारों की संख्या में रैयतों ने नील की खेती करने से मना कर दिया। सितंबर, 1858 में बंगाल के नदिया जिले के गोविंदपुर गांव में स्थानीय नेता दिगम्बर विश्वास और विष्णु विश्वास के नेतृत्व में विद्रोह की शुरुआत हो गई। आंदोलन तेजी से पांव पसारते हुए 1860 तक ढाका, मालदा और पावना जैसे कई इलाको में फैलता चला गया। किसान इतने एकजुट हो गये कि बागान मालिकों को अब वे लगान भी नहीं चुकाने लगे और नील के कारखानों पर उन्होंने खेतों में इस्तेमाल में आने वाले औजारों से धावा बोलना शुरू कर दिया। केवल पुरुष ही नहीं, महिलाओं ने भी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।

इनका भी समर्थन

कामकाजी लोग भी आंदोलन में शामिल होने लगे। लगान वसूलने के लिए जाने वाले एजेंटों को पीट-पीट कर भगाया जाने लगा। मजबूर जमींदारों का भी समर्थन मिलने से आंदोलन और मजबूत हो गया। अब तो अंग्रेजी हुकूमत भी इस विद्रोह से डरने लगी। किसी भी तरह से इस विद्रोह को शांत करवाना उनके लिए जरूरी था। किसानों की एकजुटता ने असंभव को संभव कर दिखाया था। कड़ी ठंड में भी रात में अधिकारी यहां-वहां दौरा करने पर मजबूर हो गये। फिर मजिस्ट्रेट की ओर से जारी नोटिस में कहा गया कि नील के अनुबंधों को मानने पर रैयतों को मजबूर नहीं किया जायेगा। इस घोषणा के बाद रानी विक्टोरिया के नील की खेती न करने के फरमान की खबर फैलने से हालात और खराब होने शुरू हो गये।

नील आयोग की रिपोर्ट

कोलकाता के शिक्षित लोग, पत्रकार और लेखक तक गरीब किसानों के साथ हो गये। लेखकों ने अत्याचार के बारे में खुलकर लिखना शुरू कर दिया। सेना तक ब्रिटिश सरकार को बागाना मालिकों की सुरक्षा के लिए तैनात करनी पड़ी। नील आयोग भी मामले की जांच के गठित कर दिया, जिसमें न केवल बागान मालिकों को दोषी पाया गया, बल्कि उनके बर्ताव को भी बुरा बताते हुए उनकी कड़ी आलोचना की गई। आयोग ने नील की खेती को किसानों के लिए घाटे का सौदा बताया। आयोग ने यह भी कहा कि पहले के अनुबंधों के पूरा होने के बाद किसान नील उगाने के लिए मजबूर नहीं किये जाएंगे।

ऐतिहासिक सफलता

बंगाल में नील की खेती के धराशाई होने के बाद बिहार में भी महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1917 में नील बागानों के खिलाफ चंपारण आंदोलन की शुरुआत हो गई। इसे भी बड़ी कामयाबी मिली। इस तरह से किसानों की एकजुटता रंग लाई। उन्हें उस नील की खेती करने से आजादी मिल गई, जिन्होंने उनकी जिंदगी को नरक बना दिया था। अंग्रेजी हुकूमत को आखिरकार नील विद्रोह की वजह से घुटने टेकने पड़े थे। यही वजह है कि नील विद्रोह को भारत की आजादी की लड़ाई में बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है।