भारतीय इतिहास में ऐसी कई स्त्रियां हुई हैं, जिन्होंने इस बात को साबित किया है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में महिलाओं को भी पुरुषों के बराबर स्वतंत्रता प्राप्त थी और इस संस्कृति में नारियों ने भी अपनी विद्वता से बड़े-बड़े पुरुष धुरंधरों को परास्त किया है। इन्ही में से एक नाम आता है रानी दुर्गावती का, जो ना केवल बहुत सुंदर थीं, बल्कि राजकाज चलाने एवं युद्ध कौशल में भी उन्हें ऐसी महारत हासिल थी कि मुगल भी उनका नाम सुनकर भयभीत हो जाते थे। यहां हम आपको इन्हीं रानी दुर्गावती के शौर्य की दास्तां सुना रहे हैं।
चंदेलों की राजधानी महोबा में रानी दुर्गावती राजा कीर्ति सिंह के यहां 5 अक्टूबर 1524 को जन्मी थीं। इस राज्य का विस्तार बुंदेलखंड तक हुआ करता था। बचपन से ही रानी दुर्गावती सुंदर और गुणवान भी थीं। उनके पिता तो उन्हें पढ़ाना-लिखना चाहते थे, मगर रानी दुर्गावती को इसमें कोई रुचि नहीं थी। जब उन्हें पढ़ाने के लिए गुरुजी आते थे तो वह कह देती थीं कि मुझे क ख ग घ मत पढ़ाइए। कुछ पढाना ही है तो महाभारत और रामायण की कहानियां मुझे सुनाइए। ऐसा कहने पर गुरुजी भी कुछ न बोल पाते थे और रानी दुर्गावती घोड़े पर सवार होकर धनुष-बाण लेकर अभ्यास के लिए निकल जाती थीं।
हर पिता की तरह अपनी बेटी की शादी का सपना देखने वाले कीर्ति सिंह ने जब रानी दुर्गावती का विवाह करने का सोचा तो उनके मन में ख्याल आया कि वह न केवल रूपवती हैं, बल्कि बेहद बहादुर भी हैं। साथ ही वे केवल राजपूत से ही उनकी शादी करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने घोषणा करवा दी कि जो भी अपनी सरिता का परिचय देगा, उस राजपूत राजकुमार से उनका विवाह कर दिया जाएगा। यह सुनकर गोंड राजा संग्राम शाह मडावी के बेटे दलपत शाह ने विवाह का प्रस्ताव भेजा, लेकिन कीर्ति सिंह ने कहा कि उनके गौड़ जाति के होने कि वजह से वे उनके साथ रानी का विवाह नहीं करेंगे, लेकिन उन्होंने उनके सामने महोबा की सेना को परास्त करने की शर्त रखी। दलपत शाह ने युद्ध की तैयारियां करना शुरू कर दिया, जबकि इधर कीर्ति सिंह किसी और से रानी के विवाह की तैयारियां करने लगे। ऐसे में रानी दुर्गावती ने पत्र लिखकर दलपत शाह को यह बता दिया। दलपत शाह ने महोबा के सैन्य बल के विशाल होने के बावजूद युद्ध भूमि में उसे परास्त कर दिया, जिससे प्रभावित होकर कीर्ति ने रानी दुर्गावती का विवाह उनके साथ कर दिया।
रानी दुर्गावती को विवाह के एक साल के बाद एक बेटा तो हुआ, जिसका नाम उन्होंने वीरनारायण रखा, लेकिन इसके 4 साल बाद ही राजा दलपत शाह का निधन हो गया। इसके बाद अपने बेटे को सिंहासन पर बैठा बैठा कर रानी ने सत्ता की बागडोर संभाल ली। उनके कुशलता से शासन चलाने की वजह से गोंडवाना राज्य बेहद समृद्ध दिखने लगा और आसपास के राज्यों के राजाओं ने इसके वैभव को देखकर और एक नारी शासक को कमजोर समझ कर राज्य को लूटने के लिए हमला भी किया, मगर सभी को रानी दुर्गावती ने हरा दिया।
अकबर तक भी गोंडवाना की समृद्धि की चर्चा पहुंच गई थी। साथ ही उसे मालूम चला था कि रानी दुर्गावती अत्यंत सुंदर हैं। उसने सोचा कि गोंडवाना पर हमला कर दिया जाए तो विवश होकर रानी आगरा आ जाएगी, लेकिन कुछ सोच-विचार कर उसने एक बड़ी पिटारी में रानी दुर्गावती को उपहार स्वरूप चरखा भेजा। बुद्धिमान रानी ने इसका मतलब समझ लिया कि नारियों को घर में बैठकर चरखा चलाना चाहिए और राजकाज जैसी चीजों में नहीं पड़ना चाहिए। इसके बाद उन्होंने भी एक बड़े संदूक में अकबर को उपहार में रूई धुनने की धन्नी और धूनने के लिए मोटा डंडा भेज दिया। अकबर के दरबारियों ने अकबर को इसका अर्थ समझाया कि तुम तो जुलाहे हो। रुई धूनना और कपड़े धोना ही तुम्हारा काम है। तुम्हें राजकाज से क्या लेना-देना? यह सुनने के बाद अकबर इतने गुस्से में आ गया कि उसने अपने सेनापति आसफ खान को तुरंत विशाल सेना के साथ गोंडवाना पर हमला बोलने और रानी को बंधक बनाकर लाने का आदेश दे दिया।
आसफ खां ने पहले रानी को समझाने के लिए संदेश भेजा कि तुम शहंशाह अकबर की दासता स्वीकार करके आ जाओ। तुम्हारा राज्य भी तुम्हारे पास रहेगा और बहुत सी जागीरें भी तुम्हें दे दी जाएंगी, मगर बहादुर रानी ने इसका उत्तर भेजा कि मेरे देश को कोई भी गुलामी की जंजीरों में नहीं बांध सकता। अंतिम सांस तक अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए लड़ूंगी। तुम भी तो गुलाम हो। हमारे पास ही मेरी सेना में आ जाओ। तुम्हें उससे ज्यादा वेतन मैं दूंगी।
रानी का संदेश पढ़ने के बाद बेहद गुस्सा होकर आसिफ खान ने उनके राज्य पर चढ़ाई कर दी। भयंकर युद्ध हुआ। अचानक नदी में बाढ़ आने की वजह से रानी के बहुत से सिपाही फंस गए, जिसका लाभ उठाकर उनके बहुत से सैनिकों को मार दिया गया। उनका 18 साल का बेटा वीरनारायण भी उसमें घायल हो गया। सैनिकों के साथ रानी ने उसे चौरागढ़ के किले में भेज दिया। इसके बाद भी रानी लड़ती रहीं। इसी दौरान एक तीर उनकी आंखों में आ लगा। फिर दूसरी आंख में भी एक तीर आकर लग गया। इसके बाद भी दोनों हाथों में तलवार लेकर वह दुश्मनों को मौत के घाट उतारती रही। इसके बाद एक और तीर गर्दन में आकर लगा, जिससे वे नीचे गिर गईं। रानी दुर्गावती नहीं चाहती थीं कि उनके शरीर को जीते-जी दुश्मन हाथ लगाए। अपने प्रधानमंत्री से उन्होंने तलवार से उनकी गर्दन काटने के लिए कहा, मगर जब उन्होंने ऐसा नहीं किया तो रानी ने खुद से अपनी तलवार से अपना गर्दन काट लिया और अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए लड़ते-लड़ते अपने प्राण न्योछावर कर दिए। 24 जून, 1564 को रानी दुर्गावती ने अपना बलिदान कर दिया। अकबर का सेनापति आसफ खां भी इस वीर रानी की वीरता को देखकर अचंभित रह गया और उसने यह कहा था कि मैं सोच भी नहीं सकता था कि कोई नारी इतनी भी शूरवीरा हो सकती है।