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समाज के लिए नहीं खुद के लिए सरकार को करना है इंटरनेट पर काबू

केंद्र सरकार की तरफ से अब इंटरनेट पर आने वाली फिल्मों, खबरों जैसी सामग्री को निगरानी में लाने की तैयारी की जा रही है। अभी तक फिलहाल सरकार सिनेमा और टीवी पर निगरानी रखती थी, लेकिन अब ओटीटी, यूट्यूब, न्यूज पोर्टल इन सब पर प्रसारित होने वाली सामग्री पर भी सरकार नजर रखेगी। सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने कहा कि टीवी चैनलों से ज्यादा समाज को खतरा इंटरनेट से है। हालांकि इस पर कोर्ट ने कहा था कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर आने वाला कंटेंट खुद उपभोक्ता चुनता है, लोगों को ये आजादी मिलनी ही चाहिए कि वो क्या देखना-पढ़ना-सुनना चाहते हैं।

अपनी असहजता को कम करना चाहती है सरकार

इंटरनेट के जरिए परोसे जाने वाला कंटेंट अभी तक किसी भी संस्था की नजर में नहीं है और एक तरह से सभी के लिए मुक्त है, इसलिए कई चीजें ऐसी भी पढ़ी या देखी जाती है जो सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा करती है। ऐसे में कई लोगों का मानना है कि सरकार इन माध्यमों पर भी अपना अंकुश लगाना चाहती है। ये ठीक है कि मुक्त इंटरनेट माध्यमों पर दिखाई जाने वाली सारी सामग्री दोषमुक्त नहीं है। कई लोगों का मानना है कि इंटरनेट पर उपलब्ध कई चीजों से युवाओं पर बुरा असर पड़ रहा है।

अश्लीलता का आरोप लगाते हुए कई कार्यक्रमों पर रोक लगाने की जरूरत भी सामने आती रही है। मगर सच्चाई ये है कि सिनेमा और टीवी कार्यक्रमों पर अनावश्यक कैंची चलाने के तरीके से दूर आकर ही अनेक फिल्म निर्माता-निर्देशकों ने ओटीटी माध्यमों पर अपनी फिल्मों, धारावाहिकों का प्रसारण करना सही समझा है। समाचारों चैनलों पर सहज आजादी महसूस न कर पाने की वजह से ही कई पत्रकारों ने स्वतंत्र रूप से इंटरनेट माध्यमों पर अपने विचार और खबरों की निष्पक्षता रखने की कोशिश की है।

स्वतंत्र डायरेक्टर और पत्रकार कहां करेंगे काम?

ऐसे में अगर सूचना प्रसारण मंत्रालय यहां पर भी उसी तरह से नजर रखना शुरू कर देगा, जैसे कि फिल्म प्रमाणन बोर्ड करते हैं तो फिर कलाओं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा पहुंचने की आशंका बढ़ जाती है। गलत चीजों को रोकने के लिए अच्छी नीयत के साथ काम हो, तो भला किसे आपत्ति हो लेकिन मंशा साफ न हो तो अच्छी चीजें भी प्रभावित होती ही हैं।

फिल्म, कलाएं और वैचारिक संवाद क्योंकि अभिव्यक्ति के माध्यम हैं और उनमें निर्माता, निर्देशक, कलाकार, लेखक, विचारक प्रयोग करते रहते हैं और उसके लिए वो खुद उत्तरदायी होते हैं। इन अभिव्यक्तियों का मूल्यांकन उपभोक्ता की नजर से किया जाता है। इसलिए एक बड़े वर्ग का उचित तर्क होता है कि इन माध्यमों पर निगरानी रखने के बजाय इन्हें लोगों की नजर पर छोड़ देना ही सही है। फिर क्योंकि इंटरनेट माध्यम किसी एक देश और सीमा से बंधे नहीं होते है, इसलिए उन पर निगरानी रख पाना सरकार के लिए चुनौती भरा काम होगा।

समाज खुद कर सकता है नियंत्रण

बहुत सारी चीजों को समाज खुद नियंत्रित करता रहता है, इसलिए इंटरनेट पर परोसी जाने वाली सामग्री भी उससे दूर नहीं मानी जा सकती है। फिर अदालतों में किसी आपत्तिजनक अभिव्यक्ति को चुनौती देने का रास्ता तो हमेशा ही खुला है। इसलिए अगर सूचना मंत्रालय साफ मन से इन माध्यमों पर निगरानी रखे तो कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन इस अधिकार के दुरुपयोग से कैसे बचा जाए, इसका भी उपाय होना चाहिए। नहीं तो इस कदम का कोई मुल्य नहीं रह जाता है और इंटरनेट की आजादी और अभिव्यक्ति की आजादी पर ये सरकार के द्वारा गहरा प्रहार होगा जैसा कि टीवी, सिनेमा और अखबारों के साथ किया जाता है।