बहुजन समाज पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को फिर से पार्टी का उपाध्यक्ष बना दिया है। लेकिन इससे बड़ी खबर ये है कि मायावती ने अपने भतीजे को नेशनल कोऑर्डिनेटर भी बना दिया है। जब बसपा को पूरी तरफ से नाम खत्म होता जा रहा है ऐसे में बसपा का मुकाबला सीधे बीजेपी जैसी परिवारवाद पर बेहद आक्रामक रहने वाली पार्टी से हो, तो मायावती का ये फैसला काफी हैरान कर देने वाला होता है। गौरतलब है कि साल 2016 में ही मायावती ने कह दिया था कि मैं किसी भी कीमत पर परिवारवाद को बढ़ावा देने वाली नहीं हूं। वहीं एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मायावती ने मीडिया पर आरोप लगाया और कहा था कि आकाश का नाम जबरदस्ती उछाला जा रहा है। हालांकि अब उनका रवैया पूरी तरह से बदल गया है। उनका कहना है कि वो आकाश को पार्टी में शामिल करके सीखने का मौका देना चाहती है।
ऐसे में बसपा से कुछ सवाल जरूर बनते हैं, क्या मायावती परिवारवाद की नई मिसाल बन गई हैं? वहीं दूसरा कि क्या लंदन में पढ़ कर आए आकाश कांशीराम के उस बहुजन मूवमेंट को समझ पाएंगे जो कि उन्होंने जमीन पर रहकर, बस्तियों में घूम-घूमकर तैयार किया है? बसपा सिर्फ एक पार्टी नहीं थी, इसकी जब शुरुआत हुई थी तो ये एक आंदोलन था। साल 1984 में जब कांशीराम ने बसपा की स्थापना की थी तो उन्होंने इसे एक राजनीतिक पार्टी नहीं बल्कि एक आंदोलन कहा था। एक ऐसा आंदोलन जो आजाद भारत में दलितों की सबसे बड़ी आवाज बनकर सामने आया था। कांशीराम ने बसपा का प्रचार साइकिलों पर और बसों में घूम-घूमकर किया था। वो दलितों की बस्तियों में रातें गुजारा करते थे। इन बस्तियों में रहना, लोगों से मिलना, उन सबको अपने आंदोलन के बारे में बताना, सबको इकट्ठा करके ही कांशीराम ने बसपा को खड़ा किया था। बाबा साहब अम्बेडकर ने दलितों को अधिकार दिलाया था तो कांशीराम ने समाज में उनको बोलने और राज करने का सपना दिखाया था।
खुद कांशीराम भी पार्टी में परिवारवाद के खिलाफ रहा करते थे और कांशीराम ने मायावती को अध्यक्ष बनाया था। हालांकि तब भी कई तरह के सवाल उठे थे, लेकिन कांशीराम अपने फैसले पर अड़े रहे थे। उनका कहना था कि मायावती में उनको वो नेता दिखता है जो सबको साथ रख सके। बसपा में जब तक कांशीराम एक्टिव रहे, तब तक पार्टी को सफलता मिलती रही थी। ये पार्टी पंजाब, यूपी, बिहार, एमपी, महाराष्ट्र, दिल्ली, राजस्थान और भारत के कई हिस्सों तक फैल गई थी। लेकिन बाद में पार्टी सिर्फ उत्तर प्रदेश पर ही फोकस कर सकी थी। वहीं बाद में बसपा का ध्यान आंदोलन से हटकर चुनाव जीतने और सरकार बनाने की तरफ हो गया था। जिस वजह से बसपा का वोट यूपी के बाहर घटने लगा और नए लोग पार्टी से नहीं जुड़े। बिहार, पंजाब, झारखंड जैसे राज्यों में दलितों के बीच अच्छी पकड़ बनाने वाली पार्टी सिर्फ यूपी में ही सिमट कर रह गई। दूसरी पार्टियों ने बसपा का वोट छीन लिया जो कभी कांशीराम ने कांग्रेस से खींचा था।
साल 2016 तक बसपा अब तक 2 बड़े चुनाव हार गई थी। पहला 2012 का विधानसभा चुनाव और दूसरा 2014 का लोकसभा चुनाव था। साल 2012 में बसपा राज्य की सत्ता से बाहर हो गई थी और साल 2014 में वो लोकसभा में एक भी सीट नहीं जीत सकी थी। बसपा को 2017 विधानसभा चुनावों में भी करारी हार मिली और चुनाव से पहले ही कद्दावर नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने भी बसपा छोड़ बीजेपी का हाथ पकड़ लिया था। सवामी ने मायावती पर कई तरह के आरोप लगाए और मायावती ने भी पलटवार किया और कहा कि स्वामी प्रसाद अपने बच्चों के लिए टिकट मांग रहे थे। मौर्य ने परिवार के लिए तीन टिकटें मांगी थी। मायावती ने आगे कहा कि वो परिवारवाद को बढ़ावा नहीं देना चाहतीं। लेकिन आज अपने भतीजे को सीधा पार्टी में बड़े पद पर बिठा कर परिवारवाद का ही उदाहरण दिया है।
इसके अलावा बसपा के एक और बड़े नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी भी पार्टी से अलग हो गए थे। सिद्दीकी कभी मायावती के सबसे खास रहा करते थे। निकाले जाने के बाद सिद्दीकी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में नेताओं के नाम गिनाते हुए कहा कि मायावती की वजह से हजारों लोग बसपा छोड़ गए या निकाल दिए गए। इस लिस्ट में बाबूलाल कुशवाहा, सोनेलाल पटेल, राजबहादुर, जंगबहादुर पटेल, रामलखन वर्मा जैसे नेता भी शामिल है। ये सभी भी मायावती की वजह से ही पार्टी छोड़ गए। बसपा के पतन के बाद क्या दलित समाज उस राह पर आगे बढ़ पाएगा? ये तो खैर वक्त ही बता पाएगा कि बसपा का ये नया नेतृत्व बहुजन आंदोलन को किस दिशा में ले जाता है। क्या वो कांशीराम की राह पर चलेगा या उसी मूवमेंट को नए हिसाब से चलाने की कोशिश करेगा।