कैलाश मानसरोवर हिंदुओं की आस्था का एक प्रमुख केंद्र है। कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जाने की बहुत से लोगों की इच्छा होती है और बड़ी संख्या में लोग कैलाश मानसरोवर की यात्रा करते भी हैं। हालांकि, कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए भारत को चीन पर निर्भर रहना पड़ता है, क्योंकि यह इलाका चीन में पड़ता है। जब-जब भारत और चीन के रिश्तों में तनाव पैदा होता है, कैलाश मानसरोवर यात्रा में चीन खलल डालना शुरू कर देता है।
कैलाश को भगवान भोलेनाथ का निवास माना जाता है। यही कारण है कि कैलाश में हिंदुओं की बड़ी आस्था है। हालांकि, हिंदुओं की आस्था को तब बड़ी ठेस पहुंचती है जब चीन कैलाश मानसरोवर की यात्रा को रोक कर देता है। जब-जब चीन की ओर से कैलाश मानसरोवर यात्रा में अड़चन पैदा की जाती है, तब भारतीय मायूस हो जाते हैं। उनके मन में यह सवाल पैदा होता है कि क्या कैलाश मानसरोवर आज भारत का हिस्सा नहीं हो सकता था।
दो रास्तों से होकर कैलाश मानसरोवर जाया जा सकता है। एक रास्ता सिक्किम से होकर जाता है, जबकि दूसरा रास्ता नेपाल से गुजरता है। एक और रास्ता कैलाश मानसरोवर को उत्तराखंड के पिथौरागढ़ से होते हुए जाता है, लेकिन इस रास्ते से दूरी बढ़ जाती है।
चाहे आप नेपाल के रास्ते कैलाश मानसरोवर जाएं या फिर सिक्किम के रास्ते, चीन की सीमा पार करने के बाद भी आपको कैलाश मानसरोवर पहुंचने में 5 दिनों का वक्त लग जाता है। यहां डायचिंग बेस कैंप होता है। श्रद्धालु मानसरोवर की परिक्रमा 3 दिनों में पूरी करते हैं।
कैलाश मानसरोवर में जिनकी आस्था है, उन्हें यह बात बहुत चुभती है कि कैलाश मानसरोवर आखिर भारत में क्यों नहीं है? क्यों यह चीन का हिस्सा बना हुआ है? क्या कभी भारत को ऐसा मौका नहीं मिला कि वह कैलाश मानसरोवर पर अपना अधिकार जमा सकता था?
यह अलग बात है कि हजारों वर्षों से कभी भी भारत के मानचित्र का हिस्सा कैलाश मानसरोवर नहीं रहा है। लेकिन यह बात भी सच है कि ऐतिहासिक रूप से तो कैलाश मानसरोवर भारत का ही हिस्सा रहा था। वैसे ही जैसे कि नेपाल। तिब्बत में दरअसल कैलाश मानसरोवर पड़ता है, जिसे कि चीन ने 1950 में हथिया लिया था।
भारत को जब 1947 में आजादी मिली थी तो उस वक्त भी कैलाश मानसरोवर का मुद्दा उठा था। कई लोगों का उस वक्त यह कहना था कि ऐतिहासिक रूप से तो कैलाश मानसरोवर भारत का ही भाग रहा है। ऐसे में क्यों न उसे भारत में ही मिला लिया जाए। चीन की सेना भी उस वक्त ज्यादा मजबूत नहीं थी। भारत के लिए ऐसा कर पाना मुमकिन था, लेकिन तब ऐसा किया नहीं आया।
प्राचीन भारत को यदि देखा जाए तो तिब्बत नाम की कोई जगह तब नहीं दिखती है। भारतीय राजा ही यहां शासन करते थे। यहां तक कि न तो मुगलों ने कभी इन पहाड़ी इलाकों में कोई रुचि दिखाई और न ही अंग्रेजों ने ज्यादा इसमें दिलचस्पी ली। वर्ष 1950 में तिब्बत पर चीन ने हमला बोल दिया। तिब्बत पर उसने अपना कब्जा जमा लिया।
भारत की सेना भी तब इतनी मजबूत तो थी ही कि यदि वह चाहती तो तिब्बत की रक्षा कर सकती थी और चीनी सेना से दो-दो हाथ भी कर सकती थी, लेकिन भारत ने ऐसा किया नहीं। तत्कालीन सरकार का मानना था कि चीन के साथ दोस्ताना संबंध हैं। ऐसे में उससे लड़ना उचित नहीं होगा। बस इतना भारत ने तब किया था कि दलाई लामा को जब चीन की सेना ने खदेड़ दिया तो भारत की सरकार ने दलाई लामा को उनके समर्थकों के साथ भारत में शरण दिया। अपनी सुरक्षा में भारतीय सेना दलाई लामा एवं उनके समर्थकों को भारत लेकर आई थी।
तिब्बत पर भले ही चीन ने कब्जा कर लिया था और इस तरह से कैलाश मानसरोवर भी चीन के कब्जे में चला गया था, मगर इसके बावजूद उस वक्त भारत की सेना इतनी मजबूत थी कि वह कैलाश मानसरोवर को चीन के कब्जे से छुड़ा सकती थी। फिर भी भारतीय सेना को ऐसा करने का निर्देश नहीं दिया गया।
आखिरकार चीन की विस्तारवाद वाली नीति भारत पर भी भारी पड़ती चली गई। देहरादून के सांसद महावीर त्यागी ने 1962 में चीन युद्ध के बाद संसद में नेहरू से एक सवाल पूछा था। उन्होंने कहा था कि 72000 वर्ग मील की हमारी जमीन चीन ने हथिया ली है। हमें यह जमीन वापस कब मिलेगी? अक्साई चिन के बारे में उन्होंने यह सवाल पूछा था। नेहरू ने तब कहा था कि जो जमीन चली गई, वह तो चली गई। एक घास का तिनका तक उस इलाके में उगता नहीं है।