असम (Assam)के गुवाहाटी से थोड़ी दुरी पर स्थित देवी सती का कामाख्या मंदिर इस मंदिर को लेकर कई कथाएं हैं. कामाख्या मंदिर 51 शक्तिपीठों में से सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाला है यह मंदिर रजस्वला(menstruation) रक्त पूजा की वजह से ज़्यादा प्रसिद्ध है क्योंकि यह पूजा लोगो को अपनी तरफ आकर्षित करता है। हालाँकि यह मूर्ति चट्टान से बनी है इस मूर्ति में कामाख्या देवी की योनि की पूजा होती है क्योंकि माता की चट्टानों से बनी योनि से। रक्तस्त्राव (Bleeding) होता है।
इन तीन दिनों में माता कामाख्या देवी रजस्वला होती है
वर्ष में एक बार यहाँ तीन दिनों के लिए मंदिर पूरी तरह से बंद रहता है। ऐसा माना जाता है कि माँ कामाख्या इन तीन दिनों में माता कामख्या देवी रजस्वला होती हैं जिससे उनके शरीर से रक्त निकलता है। ऐसा कहा जाता है की इस दौरान इस शक्तिपीठ की अध्यात्मिक शक्ति (Spiritual power) और बढ़ जाती है। इसलिए देश की अलग अलग जगहों से साधक और तांत्रिक सभी लोग आस-पास की गुफाओं में रहकर साधना करते हैं।
सति ने हवन कुंड में कूदकर देदी जान
यहाँ कि प्रचलित कथा के अनुसार देवी सति की भगवान शिव से शादी हुई थी ऐसा कहा जाता है कि सति के पिता राजा दक्ष इस शादी से खुश नहीं थे। एक दिन राजा दक्ष ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन करवाया लेकिन यज्ञ में राजा दक्ष ने भगवान शिव को नहीं बुलाया। देवी सति इस बात से बहुत नाराज़ हुईं और पिता के बिना बुलाए उनके घर पहुंच गई। उसके बाद राजा दक्ष ने देवो और भगवान शिव का बहुत अपमान किया। अपने पति का इतना अपमान होता हुआ देख सति से सहा नहीं गया और सति ने हवन कुंड में कूदकर अपनी जान देदी।
भगवान विष्णु ने चलाया अपना सुदर्शन चक्र
हालाँकि इस बात का पता चलते ही भगवान शिव क्रोधित होकर यज्ञ में पहुंचे और सति के शव को लेकर बड़े ही क्रोध में वहां से चले गए। भगवान शिव देवी सति का शव लेकर घोर तांडव (dance of fury) करने लगे, जिससे उन्हें रोकने के लिए भगवान विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र भगवान शिव कि तरफ फेंका। जिससे यह चक्र जाकर सति के शव को लगा और सति का शव 51 हिस्सों में कटकर जगह-जगह गिर गया। उन हिस्सों में से सति की योनि(Vagina) और उनके गर्भ का हिस्सा निलाचंल पर्वत पर गिरा।ऐसा कहा जाता है कि 17वीं सदी में बिहार के राजा नर नारायणा ने कामाख्या मंदिर बनवाया था। हालाँकि इस मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है यहां केवल माता के योनि का रूप में बनी एक समतल चट्टान कि पूजा होती है।
रक्त में डूबा कपड़ा होता है अंबुवाची मेले का प्रसाद
हर साल अंबुवाची मेले के समय वहां पर स्थित ब्रह्मपुत्र नदी का पानी पूरी तरह से लाल हो जाता है। ऐसा मान्यता है कि ये पानी माता के रजस्वला होने कि वजह से होता है इतना ही नहीं भक्तो को दिया जाने वाले वाला प्रसाद (Holy offering)भी पूरी तरह से रक्त में डूबा कपड़ा होता है। ऐसा कहा जाता है कि जब तीन दिन तक मंदिर के दरवाजे बंद होते हैं तब मंदिर में एक सफेद रंग का कपड़ा बिछाया होता है जो चौथे दिन मंदिर का द्वार खुलने तक पूरी तरीके से लाल हो जाता है। हालाँकि इस लाल कपड़े को मेले में आए भक्तों को प्रसाद स्वरुप दिया जाता है। जिससे इस प्रसाद को अंबुवाची प्रसाद कहा जाता है।
हालाँकि पौराणिक कथाओं में विश्वास ना करने वाले लोगों का ये मानना है कि इस मंदिर के पास वाली ब्रह्मपुत्र नदी का पानी मंदिर में आये भक्तो द्वारा मेले में चढ़ाए गए सिंदूर(Vermilion) के कारण होता है। या फिर यह रक्त उन पशुओं का हो जिनकी इस मंदिर में बलि दी जाती है। लेकिन सच्चाई जो भी इस मंदिर को लेकर कई लोगो कि आस्था जोड़ी हुई है और वैसे भी इस मदिर में अगर कोई चीज लोगो को मंदिर की तरफ आकर्षित करती है तो वो है यहाँ कि रजस्वला रक्त की पूजा, जिसे देखने यहां देश-विदेश से दर्शनार्थी (Visitor)हर साल बहुत लोग आते हैं।