Headline

सियाचिन ग्लेशियर को लेकर अक्सर चर्चा होती रहती है। एक ओर भारत की सेना तो दूसरी ओर पाकिस्तान की सेना यहां हमेशा आंख गड़ाए बैठी हुई नजर आ जाती है।

TaazaTadka

सस्ती शिक्षा को बोझ बताने वाले नेता जरा अपनी पार्टी के चंदे पर भी नजर डालें

सस्ती या मुफ्त शिक्षा की मांग लेकर जो छात्र सड़क पर है, उन पर जो राजनीतिक दल सवाल दाग रहे हैं, जरा वो अपने चंदे की तरफ भी नजर घुमा कर देखें।
Logic Taranjeet 24 November 2019

सस्ती शिक्षा को लेकर इस वक्त हर तरफ बहस छिड़ी हुई है। कुछ लोग है जो छात्रों के पक्ष में खड़े हैं तो कुछ इनका विरोध कर रहे हैं। लेकिन दुकानें चल रही है तो वो राजनीतिक दलों की। सस्ती या मुफ्त शिक्षा की मांग लेकर जो छात्र सड़क पर है, उन पर जो राजनीतिक दल सवाल दाग रहे हैं, जरा वो अपने चंदे की तरफ भी नजर घुमा कर देखें। क्या कभी किसी ने जहमत करी कि जाकर इन दलों से पुछा जाएं कि पैसा आया कहां से? इंस चंदे के पीछे की वजह क्या है? क्या वो इसलिए पैसा देता है कि नेता चुनकर आएं और सस्ती शिक्षा मुहैया करवाएं या इसलिए कि नेता सस्ती शिक्षा की मांग करवाने वालों पर लाठियां बरसाएं और उन स्कूलों और कॉलेजों की वकालत करें जो शिक्षा देने के नाम पर कारोबार चलाती हैं और पढ़ाने के नाम पर मोटी फीस वसूल करती हैं।

सभी पार्टियों का कुल चंदा आधा भी नहीं है भाजपा के चंदे के

कई तरह के अलग अलग दस्तावेजों को अगर ढंग से देखें तो राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाला चंदा सात हजार करोड़ की सीमा को पार कर चुका है। वो भी तब जब देश की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। राजनीतिक पार्टियां अपने पास मिलने वाले चंदे को दो तरह से दिखाती हैं- पहला है, कम्पनी ट्रस्ट और व्यक्तियों से मिलने वाला चंदा। दूसरा है, इलेक्ट्रोरल बॉन्ड से मिलने वाला चंदा। इलेक्शन कमीशन के कंट्रीब्यूशन रिपोर्ट से मिली जानकारी से ये पता चलता है कि साल 2017-18 में कांग्रेस को मिलने वाला चंदा 27 करोड़ था, जो साल 2018-19 में बढ़कर 147 करोड़ हो गया था। वहीं 2017-18 में भाजपा को 437 करोड़ रुपये चंदा मिला था, जो कि 2018-19 में बढ़कर 742 करोड़ हो गया। ये कांग्रेस को मिले कुल चंदे से सात गुना अधिक था। साल 2018-19 में कांग्रेस को 147 करोड़, तृणमूल कांग्रेस को 44 करोड़, एनसीपी को 12 करोड़, सीपीएम को 2 करोड़ , सीपीआई को 1 करोड़ रुपये चंदा मिला था। इस तरह से देखा जाए तो भाजपा को मिलने वाला चंदा सभी पार्टियों के कुल चंदे के दो गुने से अधिक था।

फरवरी 2018 से लेकर अक्टूबर 2019 तक तकरीबन 6,128 करोड़ रुपये के इलेक्ट्रोरल बॉन्ड खरीदे गए। इनमें से केवल 602 करोड़ रुपये के चंदे को ही इलेक्शन कमीशन के पास दिखाया गया है। इनमें से भी साल 2018 के लिए भाजपा के द्वारा दिखाया गया चंदा तकरीबन 210 करोड़ है। तेलंगाना राष्ट्र समिति ने तकरीबन 141 करोड़, टीएमसी ने तकरीबन 97 करोड़, शिवसेना ने 60 करोड़ और कांग्रेस ने केवल 5 करोड़ चंदा इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के तौर पर दिखाया है।

क्यों भाजपा को मिलता है इतना चंदा

चंदे की इस राशि को देखकर पहला सवाल तो यही उठता है कि भाजपा में आखिरकार ऐसा क्या है कि लोग उसे इतना पैसा दे रहे हैं। तो पहला जवाब तो ये होगा कि जो पार्टी सरकार में होती है, जिसकी नीतियों को तय करने में अधिक भूमिका होती है, जो मौजूदा विमर्श को बहुत अधिक प्रभावित कर सकता है, उसे सबसे अधिक चंदा मिलने की सम्भावना रहती है।

लेकिन फिर भी कांग्रेस जैसे दलों का इस तरह से पीछे रहना समझ के परे हैं। ऐसे में सिर्फ एक ही बात कह सकते हैं कि लोगों को कांग्रेस में संभावनाएं दिख नहीं रही है। वैसे भी कहा जाता है कि भारतीय राजनीति में लूट का सबसे बड़ा कारण राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाला चन्दा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि चुनाव लड़ने के लिए चंदे की जरूरत होती है और पार्टियों को चंदा मिलना भी चाहिए। लेकिन अगर चंदे को मिलने वाले सोर्स सार्वजनिक नहीं होते तो भारतीय राजनीति में किसी भी तरह के सुधार केवल भाषणबाजी का हिस्सा बनकर रह जाएंगे और कुछ नहीं। भारतीय राजनीति में कुछ भी असंवैधनिक दिख रहा हो तो उसका सबसे बड़ा कारण पैसा है।

सस्ती शिक्षा के पीछे भी चंदा ही है

इसलिए मामला चाहें सस्ती शिक्षा का हो या सरकार बनने का, इन सभी के पीछे कई कारण है। लेकिन सबसे अहम तो राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाला चंदा है। जरा सोचकर देखिये कि महाराष्ट्र चुनाव में इतना पैसा खर्च करने के बाद के भाजपा चुनाव में 105 सीटें जीतकर आयी है। लेकिन चुनाव से पहले किये गए गठबंधन को तोड़ने में उसने इस बारें में तनिक भी नहीं सोचा होगा कि फिर से चुनाव की सम्भावना बन सकती है और फिर से पैसे की जरूरत पड़ेगी। ऐसा क्यों? तो जवाब सीधा है कि भाजपा के पास बहुत पैसा है और इस पैसे के दम पर हर संवैधानिक मर्यादाएं ताक पर रखी जा सकती है।

Taranjeet

Taranjeet

A writer, poet, artist, anchor and journalist.