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महाराष्ट्र में सत्ता के महाभारत ने खड़े किये तीन अहम सवाल

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव होते हैं, ये चुनाव 2 गठबंधन के बीच में होते हैं। एक तो कांग्रेस और एनसीपी का गठबंधन हुआ और दूसरा भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना का गठबंधन। 24 अक्टूबर को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे आते हैं। जिसमें भाजपा-शिवसेना गठबंधन को बहुमत मिलती है और वो सरकार बनाने के लिए दावेदार बनते हैं। लेकिन तभी ट्विस्ट आता है और शिवसेना खुद को गठबंधन से दूर कर लेती है और भारतीय जनता पार्टी पर ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री की बात सामने रखती है। जिसके बाद सरकार नहीं बनती है और लंबी जद्दोजहद के बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लग जाता है। फिर कुछ वक्त बाद शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी में गठबंधन होता है और शिवसेना का मुख्यमंत्री बनने ही वाला होता है कि अचानक रात के 2 बजे से लेकर सुबह 8 बजे तक भारतीय जनता पार्टी सरकार बना लेती है वो भी एनसीपी के समर्थन से। देवेंद्र फड़नवीस मुख्यमंत्री और अजीत पवार उपमुख्यमंत्री की शपथ लेते हैं।

ये जो आपने ऊपर कहानी पड़ी ये किसी फिल्म की कहानी नहीं थी। बल्कि महाराष्ट्र का असल सियासी ड्रामा था। लेकिन इसमें शिवसेना न घर की रही और न घाट की। हालांकि अभी शिवसेना, कांग्रेस और शरद पवार को उम्मीद है कि ये सरकार बहुमत में फेल हो जाएगी। लेकिन जो भी हो शिवसेना एक तरफ मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रही थी और नींद टूटी तो मुख्यमंत्री बन चुका था। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में कुछ सवाल उठते हैं, जैसे कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि अजीत पवार अपने चाचा के खिलाफ चले गए। जबकि उपमुख्यमंत्री का पद तो उनका था ही। वहीं जब कांग्रेस, शिवसेना, एनसीपी सरकार बना सकते थे तो इतनी देरी क्यों कर दी? इस पूरे ड्रामे में हमें महाराष्ट्र के सियासी सवाल पर जरूर नजर डालने चाहिए।

कहां गलत हो गया विपक्ष?

कांग्रेस, शिवसेना, एनसीपी की तरफ से कई बार ऐसे इशारें किए गए कि वो तीनों मिल कर सरकार बनाने वाले हैं। सारे फॉर्मुले भी तय हो गए थे कि शिवसेना का मुख्यमंत्री होगा, एनसीपी का उपमुख्यमंत्री होगा और स्पीकर कांग्रेस का बनेगा। साथ ही मंत्रालयों के बंटवारे भी हो गए थे। लेकिन फिर क्यों चूक गए। जब सब कुछ पहले से ही तय था तो फिर किसका इंतजार कर रहे थे। ये तीनों नेता क्यों राज्यपाल से मिलने के लिए नहीं गए थे। क्यों सरकार बनाने का वक्त नहीं लिया? बहुमत होने के बाद भी किसका इंतजार करते रहे ये तीनों दल। अलग अलग तरह से प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के सरकार बनाने का आश्वासन दिया गया, लेकिन दावा पेश नहीं किया। इतना हल्के में क्यों लिया गया? ये सारे सवाल अब कांग्रेस, शिवसेना और शरद पवार को चुभ रहे होंगे।

भाजपा को कम आंक लिया?

भारतीय जनता पार्टी ने पिछले कुछ वक्त में ऐसे कई सबूत दिए हैं कि वो 2 सीटों पर भी सरकार बना सकती है। तो फिर ऐसे में क्यों हल्के में लिया गया और अमित शाह और नरेंद्र मोदी के लिए क्यों सोच लिया कि वो 105 सीटें मिलने के बाद भी चुप बैठ गए होंगे। अंदर से कोई खिचड़ी नहीं पक रही होगी ऐसा कांग्रेस और शिवसेना ने क्यों सोच लिया। भारतीय जनता पार्टी को कमजोर समझ लिया और उन्हें रणनीति बनाने का वक्त दे कर सबसे बड़ी भूल कर दी।

अजीत पवार ने अपना भविष्य देखा?

महाराष्ट्र में अजीत पवार का उपमुख्यमंत्री बनना एक तरह से तय ही था। अगर वो शिवसेना के साथ जाते तो भी वो सरकार का अहम हिस्सा रहते और पूरा कंट्रोल उनके हाथ में होता। लेकिन फिर वो क्यों भाजपा के साथ गए। दरअसल इस वक्त देश में भाजपा के पक्ष में जो लहर बह रही है, उसमें जो भी सफर कर रहा है उसका भविष्य बेहतर कहा जा सकता है। कांग्रेस इस वक्त ऐसी नांव में है जो न तो डूबी है और न ही पार आई है। लेकिन कर कुछ भी नहीं पा रही है, ऐसे में अजीत पवार को अभी अपना राजनीतिक करियर बचाए रखना जरूरी लगा होगा और उन्होंने भाजपा का साथ देना सही समझा। क्योंकि उनके चाचा शरद पवार के लिए माना जा रहा है कि ये उनका आखिरी चुनाव था और अब उनकी उम्र भी हो गई है, तो हो सकता है कि वो एक्टिव पॉलिटिक्स का हिस्सा न रहे। ऐसे में भतीज अजीत का क्या होगा। अब वो भाजपा की शरण में आ गए हैं तो उनके ऊपर जो 33 हजार करोड़ का केस है वो भी खत्म होने की संभावना है और सियासी पारी भी बेहतर हो सकती है।