महाभारत काल में कौरवो को युद्ध में परास्त करके पांडवो ने हस्तिनापुर में जीत हासिल की थी। भगवान श्री कृष्ण के नेतृत्व में किया गया ये युद्ध 18 दिन तक चला और आखिर कार जीत धर्म और सच्चाई की हुई। ये तो तय था की कृष्ण के होते हुई अधर्म की जीत नामुमकिन थी।
युद्ध के पश्चात युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का राजा बनाया गया था। युधिष्ठिर एक ऐसा राजा था जोकि हमेशा ही धर्म के लिए आगे था। धर्म के लिए कुछ भी कर देने वाले राजाओं श्रेणी में युधिष्ठिर का भी नाम जोड़ा जाता था। उसी धर्म के चलते वो ये महाभारत का युद्ध जीत गए गए, और हस्तिनापुर की राजगद्दी पे बैठ गए। युद्ध के पश्चात माहौल पूरा अशांति भरा हो चूका था। जिसको शांतिमय करने के लिए भगवान श्री कृष्ण के युधिष्ठिर को अश्वमेघ करने की सलाह दी।
कृष्ण के कहने पर युधिष्ठिर ने अश्वमेघ यज्ञ का शुरू किया। इस यज्ञ में सभी शामिल हुए थे। कृष्ण की आज्ञा अनुसार यज्ञ तो आरम्भ हो गया और अब सवाल ये था की अश्वमेघ यज्ञ के अश्व को किसके नेतृत्व में छोड़ा जाये तभी अर्जुन ने कृष्ण से कहा की ये अश्व मेरे नेतृत्व में छोड़ा जायेगा। उसके पश्चात कृष्ण की आज्ञा लेकर अर्जुन अश्वमेघ यज्ञ के अश्व के पीछे पीछे चलने लगे।
अश्व के रास्ते में जितने राज्य आये सभी के राजाओं ने ख़ुशी-ख़ुशी अर्जुन की सरन में आना स्वीकार कर लिया और बिना युद्ध के वो लोग अर्जुन के साथ हो गए। अश्व ने कई जगह भ्रमण किया चलते-चलते अश्व मणिपुर पहुंचा।
मणिपुर की राजगद्दी पर बैठा राजा बभ्रुवाहन अर्जुन और चित्रांगदा का पुत्र था। जब राजा बभ्रुवाहन को पता चला की उनके पिता उनके राज्य में आये है तो वो आनंदमयी हो गया वो पुरे राज्य समेत अपने पिता का स्वागत करने राज्य के मुख्य द्धार पर पहुंचा। अपने पुत्र को देख अर्जुन भी खुश हुए लेकिन अर्जुन अभी अश्वमेघ यज्ञ के अश्व को लेकर निकले है उन्हें ना चाहते हुए भी अपने पुत्र बभ्रुवाहन से युद्ध करना ही होगा ,बभ्रुवाहन इस युद्ध को लेकर तैयार नहीं थे वो हिचकिचा रहे थे की अपने पिता के साथ युद्ध कैसे करूं।
तभी अर्जुन की दूसरी पत्नी और बभ्रुवाहन की सौतेली माँ उलूपी वहां आयी और उन्होंने बभ्रुवाहन को समझया और कहा की अपने पिता से युद्ध करो ये अनिवार्य है। तब बभ्रुवाहन पिता अर्जुन से युद्ध करने के लिए तैयार हुआ और उन दोनों के बीच कई दिनों तक युद्ध चला।
इतने दिनों तक युद्ध चलने के बाद भी उसका कोई परिणाम नहीं निकला तो अंत में बभ्रुवाहन ने कामाख्या देवी से वरदान में प्राप्त दिव्य बाण का आह्वान किया और उस बाण से अपने पिता पर प्रहार किया कामाख्या देवी के बाण का अपमान हो इसी कारण अर्जुन ने उस बाण का स्वीकार किया और उस बाण ने अर्जुन का सर धड़ से अलग कर दिया। इसी बाण के चलते अर्जुन की मौत हुई।
जब अर्जुन की मौत की खबर श्री कृष्ण तक पहुंची तो वे भी मणिपुर पोहंचे और माता कुन्ती भी वहां पर आयी। जब उन्होंने अर्जुन को मृतक देखा तो उनसे रहा नहीं गया और वो दौड़ के अर्जुन के पास गयी और सर अपनी गोद में लेकर विलाप करने लगी। ये देख माँ गंगा काफी खुश हुई और वे जोर-जोर से हसने लगी और कुन्ती को कहने लगी की तुम तो व्यर्थ में ही रो रही हो।
तुम्हारे पुत्र की ये हालत उसके कर्मो का परिणाम है याद करो वो दिन जब तुम्हारे पुत्र ने मेरे पुत्र भीष्म को मौत के घाट उतारा था। उस वख्त मेरा पुत्र भीष्म निहत्था था लेकिन अर्जुन ने मेरे पुत्र पर बाणों की वर्षा करदी जोकि धर्म के विरुद्ध था। इतना कहकर माँ गंगा फिर से हसने लगी ये सब सुनकर श्री कृष्ण को आश्रय हुआ की एक माँ होकर माँ गंगा दूसरी माँ का दर्द कैसे देख सकती है।
तब भगवान श्री कृष्ण ने बताया की भीष्म ने अपनी मृत्यु स्वयं तय की थी भीष्म ने ही अर्जुन को कहा था की वो भीष्म को निहत्था मारे अन्यथा भीष्म को पराजित किसी के बस की बात नहीं थी। इसी कारण अर्जुन ने भीष्म की आज्ञा का पालन करते हुए उन्हें परास्त किया। और तो और अर्जुन की मौत नहीं होती यदि उसने कामाख्या देवी बाण का अनादर किया होता।
ये सब सुनकर माता गंगा को मन ही मन इस बात का पछतावा होने लगा और उन्होंने कृष्ण से अर्जुन को पुनः जीवित करने का हल पूछा तब श्री कृष्ण ने कहा कि हे गंगा तुम अपनी प्रतिज्ञा वापस लो। फिर देवी गंगा ये बताया कि किस प्रकार अर्जुन का सर धड़ से जोड़ा जायेगा। तभी श्री कृष्ण ने उलूपी कहा हे देवी अपने पतिको जीवित करके का उपाय आपके हाथो में है, दरअसल उलूपी के हाथ में नागमणि थी जिससे उसने अपने पति अर्जुन को पुनः जीवित कर दिया। अर्जुन पुनः जीवित हुए और उन्होंने माता गंगा समते वहां उपस्थित सभी लोगो को प्रणाम किया और हस्तिनापुर कि और प्रस्थान किया