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अरे ये क्या ! मनमोहन सिंह वाली गलती दोहरा रही हैं मोदी सरकार

मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में सबसे बड़ा प्रहार किया था अन्ना हजारे ने, जब पूरा देश अन्ना हजारे को गांधी मान कर उनके पीछे चल पड़ा था। जहां गांधी ने देश को अंग्रेजों से आजादी दिलाने की ठानी थी, तो वहीं अन्ना ने देश को भ्रष्टाचार से आजादी की ठानी थी। उसका नतीजा क्या हुआ वो अलग कहानी है, लेकिन अन्ना के आंदोलन ने कांग्रेस को गद्दी से हटा दिया।

इस आंदोलन से कई और नेता भी निकले, जिनमें दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी शामिल है। यूपीए-2 की सरकार ने सबसे बड़ी गलती की थी शुरुआत में सरकार ने आंदोलन को अनदेखा करना और इसका दमन करने का रास्ता चुना था। लेकिन इस रास्ते पर ज्यादा दूर तक नहीं जा सकी थी। इसके बाद हाल ये हुआ कि सरकार पूरी तरह से घुटनों पर आ गई थी। अनैतिक होने की जिल्लत तो झेलनी ही पड़ी, ये भी जाहिर हो गया कि सरकार कमजोर है।

मोदी सरकार का हाल भी मनमोहन सिंह वाला

कुछ ऐसा ही आज भी देखने को मिल रहा है। जो नरेंद्र मोदी की सरकार के साथ हो रहा है। कई हफ्तों से नरेन्द्र मोदी सरकार की राजनीतिक पैंतरेबाजी एकदम से गायब दिख रही है। ऐसा पहली बार हुआ है। सरकार ने शुरुआत में तो बड़ी अकड़ दिखायी। उसने किसान-संगठनों से राय लेने की जरुरत तक नहीं समझी। लेकिन, किसान-संगठनों से बिना किसी सलाह के उसने आनन-फानन में देश की खेती-किसानी की दुनिया से जुड़े कानून के ढांचे में भारी-भरकम बदलाव कर दिए।

पहले से नहीं आंकी प्रदर्शन की गहराई

सरकार ने सारी संसदीय-प्रक्रिया को एक किनारे करने का रास्ता चुना और अध्यादेशों को कानून में बदलने से पहले मसले से जुड़े पक्षकारों से बात करने को खारिज कर दिया। उसने चेतावनी के तमाम संकेतों से आंखें फेर लीं नहीं तो दिख जाता कि देश भर में 9 अगस्त, 24 सितंबर और 5 नवंबर को किसानों ने मसले पर छोटे-मोटे विरोध प्रदर्शन किये हैं।

पंजाब में किसानों की अप्रत्याशित लामबंदी चल रही थी लेकिन सरकार खड़े-खड़े तमाशा देखती रही और, आखिर को जब पानी नाक के नीचे तक आ गया तो सरकार ने बेचैनी में हाथ-पांव मारने शुरु कर दिए। उसने तमाम जतन किये कि दिल्ली कूच कर रहे किसान अपनी मंजिल तक ना पहुंच सकें। सरकार ने बैरिकेड लगाये, राह रोकने को रोड़े नहीं एकदम से चट्टानें ही अड़ा दी, वाटर कैनन से बौछार हुई, टीयर गैस के गोले दागे। लेकिन कुछ भी काम नहीं आया।

हर दांव खराब हो गया

यहां तक कि जब किसान दिल्ली के बार्डर पर आ डटे तो सरकार की प्रतिक्रिया ये रही कि हम बात तो करेंगे लेकिन शर्तों के साथ। ये भी काम नहीं आया और बाद को बेशर्त बातचीत चली तो सरकार ने फूट डालने, ध्यान भटकाने और गुमराह करने का अपना आजमाया हुआ दांव भी चला। हैरानी की बात तो ये है कि वो भी काम नहीं कर सका। किसान-नेता इस फंदे में नहीं फंसे, अचरज नहीं कि दूसरे दौर की बातचीत में भी किसी बात पर सहमति नहीं बनी।

सरकार ने ऐसा अड़ियल रवैया अपना रखा है कि सार्थक संवाद हो पाने की कोई सूरत ही नहीं निकल पा रही है। सरकार अड़ी हुई है कि वो जहान भर की तमाम बातों पर बात कर लेगी लेकिन तीन कृषि-कानूनों को वापस नहीं ले सकती और किसान भी डटे हुए हैं कि वो तीन कृषि-कानूनों को छोड़ और किसी चीज पर बात नहीं करेंगे, इन कानूनों की वापसी से कम और किसी चीज पर किसान राजी नहीं।

वहीं जैसे मनमोहन सिंह सरकार को अन्ना हजारे के सामने हार माननी पड़ी थी और आश्वासन दिया था कि लोकपाल बिल आकर रहेगा और आया भी था। हालांकि वो बिल अन्ना को पसंद नहीं आया था। वैसा ही कुछ इस बार मोदी सरकार के साथ भी हो रहा है। उन्होंने किसानों को लिखित प्रस्ताव दिए हैं लेकिन इसके बाद भी किसान संतुष्ट नहीं है और अपने आंदोलन को पहले से ज्यादा तेज करने पर लग गए हैं। आलम ये है कि तमाम मंत्रियों समेत प्रधानमंत्री को भी सामने आ कर किसानों को समझाना पड़ रहा है।