ये है मेहरानगढ़ का किला। इसे सूर्य का किला भी कहते हैं। राजस्थान में जयपुर पिंक सिटी कहलाती है। उसी तरह से जोधपुर नीली सिटी यानी कि नीली नगरी कहलाती है। अपने-अपने घरों को लोगो ने नीले रंग में रंगवा लिया था। यहां के घर आज भी ज्यादातर नीले रंग के ही नजर आते हैं। आज यह राजस्थान में है। कभी जोधपुर मारवाड़ साम्राज्य की राजधानी था। इसका फैलाव लगभग एक लाख वर्ग किमी क्षेत्र में था। थार रेगिस्तान तक मारवाड़ साम्राज्य का फैलाव हुआ करता था।
पूर्व की कीमती चीजें यहां से होते हुए यूरोप तक जाती थीं। मध्य एशिया तक भी ये पहुंचती थीं। राठौर वंश के सूर्यवंशी राजपूत मारवाड़ में अपना शासन चला रहे थे। इसी से अपने किले का नाम इन्हें मिला था। इसका नाम इन्होंने मेहरानगढ़ रख दिया था। संस्कृत में सूर्य के लिए मिहिर शब्द है। मेहरानगढ़ दरअसल मिहिर से ही बना है। वैसे, मारवाड़ साम्राज्य यूं ही विकसित नहीं हुआ। उसी तरह से मेहरानगढ़ का किला भी यूं ही नहीं बन गया था। बड़ी लंबी दास्तां इसके पीछे छिपी है।
मारवाड़ पर शासन राठौड़ का था। हालांकि, वे यहां के मूल रूप से नहीं रहने वाले थे। मध्य भारत से वास्तव में उनका आगमन हुआ था। कहा जाता है कि राव चूड़ा जी ने राठौड़ वंश की स्थापना की थी। पूरे परिवार को लेकर वे मारवाड़ आ गये थे। यह करीब 800 साल पहले की बात है। आये थे यहां ये लोग एकदम शरणार्थी की तरह। कन्नौज से ये आये थे। मजबूरी थी इनकी। मुहम्मद गौरी ने हमला कर दिया था। एक प्राचीन पेंटिंग मौजूद है। यही इसके बारे में बताती है। कहा जाता है कि 1226 में ये लोग यहां से निकले थे। पश्चिम की तरफ ये चले थे। तलाश थी इन्हें एक नई जिंदगी की।
कई वर्ष लग गये थे इन्हें मारवाड़ पहुंचने में। समय बीतता चला गया। धीरे-धीरे यहां इनका रुतबा बढ़ा। इस तरह से मारवाड़ पर इन्होंने शासन करना शुरू कर दिया। राव जोधा एक मारवाड़ के राजा हुए थे। मेहरानगढ़ किले को बनवाना उन्होंने शुरू करवाया था। यह 1459 की बात है। एक ऊंचा पहाड़ उन्हें दिखा। भाकड़ चिड़ियां नाम था इसका। इसका मतलब पक्षियों का पहाड़ होता है। इसकी ऊंचाई लगभग 400 फुट की थी। कभी यह ज्वालामुखी था। अब यह सुप्त था। रणनीतिक महत्व इसका बहुत था।
किला बनता कैसे? लाखों टन चट्टान काटने पड़ते इसके लिए। फिर भी यह काम शुरू हुआ। जंग कह सकते हैं इसे इंसानों और पहाड़ के बीच। खंडवालियां समाज के लोगों ने यह जिम्मेवारी संभाली। खंड का मतलब पत्थर होता है। इन्हें इसकी अच्छी जानकारी थी। पीढ़ियों से इनमें एक खास हुनर था। चट्टान को ठोंकते थे। इससे पता चल जाता था कि दरार कहां है। यानी कि कमजोरी यह कहां पड़ है। पत्थर कटने लगे। नया आकार लेने लगे।
एक और समाज था। चबालिया ये कहलाते थे। ढुलाई करने में माहिर थे। बस साधारण दंड इस्तेमाल में लाते थे। साथ में जंजीर भी। भारी सामान भी आसान से उठा ले जाते थे। लाखों टन पत्थर अब हटाये जाने लगे। मेहनत रंग लाई। किला बनकर तैयार हुआ। न कोई नक्शा था। न कोई ड्राइंग थी। अपने ही ज्ञान से बना ली थी इन्होंने इसकी संरचना। पूरे पहाड़ पर इसकी अद्भुत संरचना देखने के लिए मिलती है। परकोटे हैं। दीवारें एक के बाद एक बनी हैं। किले को ये सुरक्षित करती थी।
शाही परिवार यहां रहता था। सेना भी रहती थी। हमेशा सतर्क रहती थी। दीवारों 23 फीट मोटी थी। तोप के गोलों का तो असर ही नहीं हो सकता था इन पर। दूर तक आसानी से निगरानी हो जाती थी। इसलिए कि ऊंचाई इसकी 325 फीट की थी। करीब 25 राजाओं ने शासन किया। किले की खूबसूरती वे अपने-अपने समय में निखारते रहे। खूबसूरत बगीचे हैं इसके अंदर। कला का यह कमाल का नमूना है।
मारवाड़ समृद्ध रहा जब तक, कला विकसित होती रही। युद्ध में जाना पड़ा था मारवाड़ योद्धाओं को। केसरिया अनुष्ठान करते थे जाने से पहले। सबसे बड़े बलिदान का यह प्रतीक था। हार निश्चित होने पर यह होता था। वीरों के साथ राजपूत राजा बैठते थे। अपने हाथों से एक नशीली दवा पिला देते थे। अपनी पगड़ी उतार देते थे। बलिदान का प्रतीक केसरिया बांध लेते थे। फिर निकल गये ये गंगवारा के युद्ध के लिए। यह 1739 में हुआ था। इनकी शौर्य गाथा का गवाह मेहरानगढ़ का किला आज भी शान से खड़ा है।