जब भारत के पहले प्रधानमंत्री की बात होती है तो पंडित जवाहर लाल नेहरू का ही नाम आता है। हमेशा से हमें यही बताया जाता रहा है, लेकिन यदि कोई आपको कहे कि पंडित जवाहरलाल नेहरु नहीं, बल्कि बरकतुल्लहा खान भारत के पहले प्रधानमंत्री थे तो क्या आपको इस पर यकीन होगा? जी हां, यह सच है। दरअसल पंडित जवाहरलाल नेहरू आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री थे, लेकिन आजाद भारत से पहले भी भारत में एक प्रधानमंत्री चुने गए थे, जिनका नाम था बरकतुल्लाह खान। आजादी की लड़ाई में इनका भी अहम योगदान रहा था।
इनका परिवार भोपाल रियासत से जुड़ा हुआ था। माता-पिता के देहांत और अपनी बहन की शादी कर देने के बाद बरकतुल्लाह खान मुंबई के लिए निकल गए थे। इसके बाद पढ़ाई करने के लिए वे इंग्लैंड चले गए, जहां कि वे प्रवासी हिंदुस्तानी क्रांतिकारियों के संरक्षक श्याम जी कृष्ण से मिले। इनका बरकतुल्लाह खान के मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि आजादी के लिए उन्होंने दिन और रात एक करना शुरू कर दिया। अपने क्रांतिकारी लेखों की वजह से जल्द ही उनकी ख्याति फैलने लगी। लिवरपूल यूनिवर्सिटी के ओरिएंटल कॉलेज में बरकतुल्लाह खान की नियुक्ति फारसी के प्रोफेसर के पद पर भी हो गई, लेकिन ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ वे लगातार लिखते रहे, जिसकी वजह से इंग्लैंड में उनका विरोध होने लगा और अंत में उन्हें देश भी छोड़ना पड़ा।
बरकतुल्लाह खान 1899 में अमेरिका चले गए, जहां उन्होंने प्रवासी भारतीयों के साथ मिलकर भारत की आजादी के लिए अपनी कोशिशें जारी रखीं। उन्होंने हसरत मोहानी को एक खत भी लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि इससे बड़े अफसोस की बात क्या हो सकती है कि दो करोड़ हिंदुस्तानी भूख की वजह से मर रहे हैं। पूरे देश में भुखमरी का आलम है, मगर ब्रिटिश सरकार भारत को केवल अपने सामानों का बाजार बनाने की नीति पर ही आगे बढ़ रही है। इस चिट्ठी में उन्होंने यह भी लिखा था कि हिंदू और मुसलमानों का एकजुट होना देश की आजादी के लिए और इसकी गिरती दशा को सुधारने के लिए बहुत ही जरूरी है।
बाद में बरकतुल्लाह खान जापान भी पहुंच गए। यहां भी जब अंग्रेजी अफसर ने उन्हें चैन से नहीं रहने दिया तो उसके बाद वे फिर से अमेरिका पहुंच गए और प्रवासी भारतीयों के गदर पार्टी का निर्माण करने की कोशिशों में अपना साथ दिया। कनाडा और मैक्सिको में रह रहे प्रवासी भारतीयों को भी बरकतुल्लाह खान ने एक करने का काम किया। खान ने गदर पार्टी की ओर से प्रकाशित साप्ताहिक गदर में क्रांतिकारी लेख लिखना तो शुरू किया ही, इसके बाद वे जर्मनी भी पहुंच गए। उन्होंने बर्लिन में युद्ध लड़ रहे हिंदुस्तानी सैनिकों को ब्रिटिश फौजी के खिलाफ खड़ा कर दिया। साथ ही अपने बेहद घनिष्ठ मित्र राजा महेंद्र प्रताप के साथ वे तुर्की, बगदाद और अफगानिस्तान भी गए।
पहले विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध रहे जर्मनी की सरकार ने खान की सुरक्षा के लिए अपने सैनिक भी दे दिए थे, लेकिन काबुल पहुंचने पर ब्रिटिश सैनिकों द्वारा उन्हें नजरबंद कर लिया गया। हालांकि, जर्मनी सरकार के दबाव और अफगानिस्तानी आवाम के विरोध के बाद वे रिहा हो गए। इसके बाद 1915 में उन्होंने हिंदुस्तान की अस्थाई सरकार का गठन कर दिया। जर्मनी सरकार ने उसी वक्त अफगानिस्तान में हिंदुस्तानियों की इस अस्थाई सरकार को मान्यता भी दे दी। इसी अस्थाई सरकार के राष्ट्रपति जहां राजा महेंद्र प्रताप बने, वहीं प्रधानमंत्री बरकतुल्लाह खान बन गए।
अफगानिस्तान की सरकार ने भारत की अस्थाई सरकार के साथ एक समझौता भी किया, जिसमें अस्थाई सरकार से उसने वादा लिया कि भारत को आजादी के लिए उसके समर्थन के बदले आजादी मिलने के बाद यह अस्थाई सरकार बलूचिस्तान और पख्तूनी भाषा-भाषी क्षेत्र को अफगानिस्तान के हवाले कर देगी। इसके बाद 1917 की अक्टूबर क्रांति हुई, जिसमें रूस की जारशाही का तख्तापलट हो गया। बरकतुल्लाह खान 1919 में मास्को जाकर लेनिन से भी मिले, जिसके बाद भारत की आजादी के जंग को सोवियत रूस से सीधा समर्थन भी मिलने लगा।
अब वक्त हो चला था भारत की आजादी के इस आंदोलन की आग को भारत के भीतर पहुंचाने का, मगर उनकी उम्र जवाब देने लगी और कैलिफोर्निया में वे जैसे ही भाषण देने के लिए खड़े हुए, उनकी तबीयत बिगड़ गई। आखिरकार 27 सितंबर, 1927 को बरकतुल्लाह खान इस संसार को अलविदा कह कर चले गए। अंतिम समय में अपने साथियों से उन्होंने कहा कि हमारी कोशिशों का भले ही हमारे जीवन में कोई खास फल नहीं मिला, लेकिन मुझे खुशी है कि हजारों की तादाद में नौजवान अब देश को आजाद कराने के लिए आगे आ रहे हैं। खान की आखिरी इच्छा उनके कब्र की मिट्टी को भारत में दफनाए जाने की थी, पर दफनाया उन्हें अमेरिका के मारविस्बली कब्रिस्तान में गया। आजादी के इतने साल बीत गए, लेकिन उनके कब्र की मिट्टी तो भारत लाई नहीं गई, उल्टा उनके नाम को ही भुला दिया गया।
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