राजनीति पर करीब से नजर रखने वाले हर इंसान को ये समझ आ चुका है कि संसद की गरिमा, मर्यादा की सभी तरह की बातें सिर्फ एक घिसा-पिटा जुमला बनकर रह गया है। संसद को हमारे देश में लोकतंत्र की शीर्ष संस्था कहा जाता है, संसद में जो दिख रहा है वो देश की ही असल हालत है। ये वही संसद है जिसकी चौखट पर 2014 में कदम रखते वक्त नरेंद्र मोदी ने माथा टेका था। लेकिन आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि यही वो संसद है जिसके 40 फीसदी से ज्यादा सांसद भ्रष्टाचार, हत्या, बलात्कार और अब तो आतंकवाद तक के आरोपों में लिप्त है। इस संसद में हंगामा, शोर-शराबा या गतिरोध पहली बार नहीं हुआ है।
जिस तरह हम एक नया भारत बनते हुए देख रहे हैं, उसमें काफी कुछ नया है। किसी प्रधानमंत्री ने पहली बार गुफा में तपस्या की है, सीमा पर से इंडो तिब्बतन बॉर्डर पुलिस से मिट्टी मंगाकर राष्ट्र रक्षा महायज्ञ, विश्वविद्यालयों में टैंक, राष्ट्रध्वज की ऊंचाई तय, जैसी बातों की सूची लंबी है। पिछले 5 सालों में रामजादे-हरामजादे, श्मशान-कब्रिस्तान के रास्ते होते हुए, हम वहां तक पहुंच गए हैं, जब आतंकवादी बम धमाके की अभियुक्त साध्वी प्रज्ञा को पहले स्वास्थ्य आधार पर जमानत पर जेल से छूटीं, फिर उन्हें दिग्विजय सिंह के खिलाफ भोपाल से चुनाव मैदान में उतारा गया।
2019 के चुनाव में जिस तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें की गईं, हर बात को हिंदुओं और मुसलमानों के बीच आर-पार की लड़ाई की तरह पेश किया गया है, ये अपने-आप में एक तरह का चुनावी वादा था कि हम सत्ता में आए तो सचमुच आर-पार की लड़ाई होगी। अब जबकि बीजेपी को 2014 के मुकाबले कहीं ज्यादा सीटें मिली है, ऐसी हालत में बीजेपी के नेता ऐसा क्यों नहीं मानेंगे कि ये उग्र हिंदुत्व की जीत है और संसद में जय श्रीराम का नारा लगाने पर उनके समर्थक खुश ही होंगे। नए भारत में नई तर्क शक्ति आई है, लोग पूछ सकते हैं कि संसद में जय श्रीराम का नारा लगाने में क्या बुराई है? ये भी पूछ सकते हैं कि जय श्रीराम का नारा भारत की संसद में नहीं लगेगा, तो क्या पाकिस्तान की संसद में लगेगा? असदउद्दीन ओवैसी ने अल्लाह-हो-अकबर का जवाबी नारा लगाया, ये वही ओवैसी है जो संविधान का हवाला देते नहीं थकते है।
आडवाणी के नेतृत्व में शुरू हुए अयोध्या आंदोलन के दौरान जय श्रीराम पहली बार एक नारे के तौर पर सामने आया था, उससे पहले जय रामजी की, जय सिया राम और राम-राम थे। जय श्रीराम आक्रामकता के साथ गूंजता है, उसमें प्रेम, भक्ति, श्रद्धा या समर्पण का भाव नहीं है। वहीं आडवाणी भी मान चुके हैं कि अयोध्या का राममंदिर का आंदोलन एक राजनीतिक आंदोलन था, इस तरह जय श्रीराम एक राजनीतिक नारा है, धार्मिक जयकारा नहीं है। लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश की संसद में धार्मिक नारा लगाना एक गंभीर बात है लेकिन ये नारा धार्मिक नहीं, पूरी तरह से राजनीतिक था। संसद बहस के लिए है, कानून बनाने के लिए है, देश की दिशा तय करने के लिए है, बजट पास कराने के लिए है, सत्ता पक्ष की नीतियों को चुनौती देने के लिए है, संसद कैसे चलेगी इसके लिए लिखित और विस्तृत प्रावधान हैं। संसद किसी भी तरह के नारे लगाने के लिए नहीं है। नारे सड़कों पर, रैलियों में, विरोध प्रदर्शनों में लगते हैं लेकिन धर्म का नाम जुड़ा हो तो कोई नियम-कानून लागू नहीं होता है।
जय श्रीराम के नारे तभी लगे असदउद्दीन ओवैसी या तृणमूल कांग्रेस के सांसद शपथ लेने के लिए आए। ये दिखाता है मकसद भगवान श्रीराम को याद करना नहीं, बल्कि मुसलमानों और हिंदुत्व की राजनीति को चुनौती देने वाली तृणमूल कांग्रेस को चिढ़ाना था। राम का नाम किसी को चिढ़ाने के लिए लेने वाला भला किस तरह का रामभक्त हो सकता है? वैसे जय श्रीराम का नारा लगाने के दोहरे फायदे हैं, इससे हिंदुत्व की राजनीति पर बीजेपी का दावा मजबूत होता है, कोई इसका खुलकर विरोध नहीं कर सकता है, और जिसे इस पर किसी भी वजह से एतराज हो, उसे हिंदू विरोधी कह कर मामला गर्म किया जा सकता है।
इसी सिक्के का दूसरा और ज़रूरी पहलू हैं ओवैसी जैसे लोग, जिनकी पूरी राजनीति मुसलमानों की असुरक्षा पर चलती है। उन्होंने संसद में अल्लाह-हो-अकबर का नारा लगाकर अपना जवाब दिया। हिंदुत्व का जोर जितना बढ़ेगा ओवैसी और आजम खान जैसे नेताओं की सियासत तो चमकेगी ही। ओवैसी ने जय श्रीराम के नारे का जवाब अल्लाह-हो-अकबर से देकर इसे बराबरी का मुकाबला बना दिया है। संसद में सिर झुकाने वाले नरेंद्र मोदी चाहते तो कह सकते थे कि संसद में जय श्रीराम और अल्लाह-हो-अकबर दोनों ही नहीं होने चाहिए क्योंकि जिस संविधान के आगे उन्होंने सिर झुकाया, अगर उसे पढ़ा-माना होता तो वो ऐसा कहते, क्योंकि ये संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। लेकिन बीजेपी की मूल भावना और संविधान की मूल भावना में अंतर है, संविधान कहता है कि धर्म के आधार पर नागरिकों के साथ अलग-अलग व्यवहार नहीं हो सकता है, लेकिन बीजेपी की यही मान्यता है कि संसद में जय श्रीराम तो ठीक है, लेकिन अल्लाह-हो-अकबर ठीक नहीं है।