सवर्ण गरीबों को नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण मिलने का रास्ता अब साफ हो गया है. राज्यसभा में भी बिल पास होने से राजनीति में हड़कंप मच गई है. इसपर किसी ने आरक्षण का समर्थन किया तो किसी ने मोदी सरकार का. संसद में बैठा प्रत्येक सांसद चुनाव में जनता से चाहता है कि वह उसे भारी संख्या में वोट दे और बहुमत के साथ उसे विजय प्राप्त हो. तो फिर संसद में ये तमाशा क्यूं….
अगर बात जब आरक्षण की हुई तो उन सासंदों को सांप क्यूं सूंघ गया जिन्होंने कोई वोट किया ही नहीं और बचने के लिए सदन से नदारद रहे…मतलब सीधे तौर पर उनके द्वारा नोटा दबाया गया. इसके पीछे की वजह केवल एक ही हो सकती है. कि जो सांसद सदन से नदारद रहे वे इस आरक्षण के पक्ष में थे लेकिन 2019 के लोकसभा के मद्देनजर मोदी सरकार के इस दाव को जिताने के पक्ष में नहीं.
अन्नाद्रमुक के एम थंबिदुरै, आईयूएमएल के ईटी मोहम्मद बशीर औऱ एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी ये तीन सांसद ऐसे रहे जिन्होंने इसका पूर्ण रूप से विरोध किया.
सवर्ण आरक्षण से राजनीतिक पार्टियों का दर्द तो साफ दिखता है. क्योंकि 2019 का लोकसभा चुनाव चरम पर है ऐसे में विपक्ष इस बात को न तो निगल सक रहा है और न ही उगल. लेकिन जिस 10 फीसदी आरक्षण का ऐलान हुआ है. वह उस गरीब तबके के सामान्य वर्ग के लिए हैं जिनकी सालाना आय 8 लाख रुपए से कम है. यानि की देखा जाए तो सारा देश ही आरक्षण के अंदर आ गया. मतलब साफ है अन्य वर्ग जो अबतक भरपूर आरक्षण का लाभ उठा रहे थे उन्हें इसका भय सताने लगा है.
वर्तमान में अनुसूचित जाति- 15 %, अनुसूचित जनजाति- 7.5 %, अन्य पिछड़ा वर्ग- 27 %, सवर्ण जाति- 10 % , कुल आरक्षण- 59.5 %
संविधान के आर्टिकल 15 में 15.6 को जोड़ा गया है. जिसके द्वारा राज्य औऱ भारत सरकार को इस संबंध में कानून बनाने से नहीं रोका जाएगा. ये 10 फीसदी आरक्षण अन्य से अलग होगा.
निश्चित तौर पर अब सारा देश ही आरक्षण की छत्र छाया में आ चुका है. साफ है कि कुछ चीजें ज्यों की त्यों बनी रहेगी. आरक्षण की आज की स्थिति देख के लगता है कि ये आरक्षण ही है जो देश को दीमक की तरह खाने में कारगर सिद्ध है.