झारखंड में चुनाव का माहौल बन गया है, भारतीय जनता पार्टी और आजसू की गठबंधन सरकार अपनी कुर्सी बचाने की कोशिश में है, तो वहीं कांग्रेस-जेएमएम की तरफ से कुर्सी पर बैठने की कोशिश की जाएगी। पिछले 5 सालों से सत्ता में बैठी भाजपा के लिए इस बार राह थोड़ी कठिन है, क्योंकि कांग्रेस पहले के मुकाबले मजबूत नजर आ रही है। इसका प्रमाण हमें महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव नतीजों में देखने को मिला था। जहां हरियाणा में बीजेपी अकेले सरकार बनाने का दावा करती थी, वहां पर उसे 1 साल पुरानी पार्टी का सहारा लेना पड़ा और महाराष्ट्र में राम भरोसे है।
ऐसे में अब झारखंड में चुनाव बड़े ही दिलचस्प होने वाले हैं, क्योंकि यहां तो 2014 में भी भाजपा ने बड़ी मुश्किल से ही सरकार बनाई थी तो 2019 में एंटी इंकमबेंसी के साथ-साथ कई और मुद्दे भी रघुवर दास पर भारी पड़ सकते हैं। साथ ही इन दोनों चुनावों का असर भी कुछ हद तक तो दिखने की संभावना है। ऐसे में भाजपा को तो ये निर्णय लेना होगा कि वो लोकल मुद्दों पर चुनाव लड़ने वाली है या फिर दोबारा से नेशनल मुद्दों को सामने लाया जाएगा। लेकिन विपक्ष अगर लोकल मुद्दों को सही से उठा ले तो खेल रोमांचक हो सकता है और क्या पता कांग्रेस और जेएमएम सत्ता में भी आ जाए।
झारखंड में फिलहाल भारतीय जनता पार्टी और आजसू के गठबंधन की सरकार है। इस दौरान झारखंड में लिंचिंग की कई घटनाएं सामने आई है। जिस वजह से मुख्यमंत्री रघुवर दास की सरकार और उनके अधीन काम करने वाली पुलिस को भी बहुत ज्यादा आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है। इस चुनाव में ये बड़ा मुद्दा बन सकता है अगर विपक्ष सही तरीके से मामले को जनता के सामने रखे। वहीं झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने झारखंड को ‘लिंचिंग-पैड’ तो कह दिया है और इससे ये संकेत भी दिए हैं कि झारखंड में चुनाव के वक्त ये मुद्दा पूरी तरह से गूंजेगा। अब ये देखना दिलचस्प होगा कि उनकी पार्टी अपने घोषणा पत्र में ‘लिंचिंग फ्री स्टेट’ का वादा करती है या नहीं।
झारखंड ने अब तक करीब 10 मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल देखा है, इस राज्य को बने हुए महज 19 साल ही हुए हैं, लेकिन ये राजनीति की कई हलचलों से गुजर चुका है। झारखंड गठन से पहले के कई दशक और झारखंड बनने के बाद के इन 19 सालों के दौरान जो मुद्दा सबसे ज्यादा चुनाव में आम रहा है, वो जल, जगंल और जमीन का मामला रहा है। शिबू सोरेन ने इस मुद्द को लेकर लंबी लड़ाई लड़ी थी। वो खुद भी मुख्यमंत्री रहे और उनके बेटे हेमंत सोरेन भी राज्य की कमान संभाल चुके हैं। लेकिन इसके बावजूद भी ये मुद्दा आज यहां की राजनीति का अहम अंग है। ये मुद्दा सीधे-सीधे आदिवासियों से जुड़ा है। ये उस जंगल पर दावेदारी करते हैं, जिससे उनकी पहचान है और इसके साथ ही नदियों, झरनों और ताल-तलैयों में बह रहे पानी और जमीनों पर हक की उनकी दावेदारी है। विभिन्न सरकारें विकास योजनाओं के नाम पर इस दावेदारी पर हमला करती है और जिस कारण यहां पर अस्थिरता आती रही है।
रघुवर दास की सरकार ने सालों पुराने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी) और संथाल परगना काश्ताकारी अधिनियम (एसपीटी एक्ट) में संशोधन की कोशिशें की है। भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन और उद्योगपतियों के लिए लैंड बैंक बनाने जैसी कोशिशें भी आदिवासियों की चिंता और आक्रोश का कारण हैं। ये इस चुनाव में एक अहम भूमिका निभाने वाला है, जिसके लिए हर दल को पहले से ही तैयार रहना चाहिए। विपक्ष ने इसे आदिवासियों के उत्पीड़न से जोड़ दिया है।
एक वक्त का खाना खाने की आस लिए कई लोगों की झारखंड में मौत हुई है। विपक्ष ने इसको लेकर कई बार हंगामा किया है और झारखंड में चुनाव के लिए ये एक बेहद गंभीर मुद्दा है। विपक्ष ने इस बात पर कई बार सरकार को घेरा है, लेकिन सरकार ने हर बार खुद को बेगुनाह साबित किया है।
विपक्षी पार्टियां रघुवर दास सरकार की डोमिसाइल पालिसी, पिछड़ा आरक्षण, बढ़ती बेरोजगारी, विज्ञापनों में पैसे की बर्बादी, भ्रष्टाचार, सरकारी तानाशाही, शिक्षा और स्वास्थ्य की खराब व्यवस्था और कुपोषण जैसे मुद्दे भी उठाने की कोशिश कर सकती है।